Friday, February 1, 2019

muqaddas rasool book-hindi urdu pdf मुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल

मुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल . लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
  •  '''रंगीला रसूल''' १९२० के दशक में प्रकाशित पुस्तक के उत्तर में मौलाना सना उल्लाह अमृतसरी ने तभी उर्दू में ''मुक़ददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल'' लिखी जो मौलाना के रोचक उत्‍तर देने के अंदाज़ एवं आर्य समाज पर विशेष अनुभव के कारण भी बेहद मक़बूल रही ये  2011 ई. से हिंदी में भी उपलब्‍ध है। लेखक १९४८ में अपनी मृत्यु तक '' हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश''  की तरह इस पुस्तक के उत्तर का इंतज़ार करता रहा था ।

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  • Muqaddas Rasool Ba-Jawab Rangila Rasool [ Hindi ]
    by Maulana Sanaullah Amritsari (Author)
    an Arya leader and scholar, consequently wrote a book "RANGILA RASOOL"bringing out the alleged 'disreputable' side of life history of Prophet Mohammad of Islam. Maulana Sanaullah Amritsari in his book Muqaddas Rasool (The Holy Prophet) refuted all the allegations.

muqaddas rasool bajawab rangila rasool (in Urdu)

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मुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल 
लेखक
शैखुल इस्लाम अल्लामा अबुल वफ़ा  सनाउल्लाह अमृतसरी 
Composing (Hindi Unicode) By: Muhammad Amjad Kairanvi
प्रकाशक  अल  किताब इंटरनेशनल
मुरादी रोड ,बटला हाउस ,जामिया नगर


विषय सूची 

उलमा ए किराम की रायें 
इस्लामी समाचार पत्रों की रायें 
खुदा की बारगाह में दुआएं 
भूमिका 
आर्यों में निकाह का तरीका 
जवाब की भूमिका 
संक्षिप्त जवाब 
हजरत उम्मुल  मोमिनीन खदीजातुल कुबरा रजियल्लाहु अन्हा 
हजरत उम्मुल  मोमिनीन आयशा सिद्दीका रजियल्लाहु अन्हा 
श्रद्धानंद की शर्मनाक नैतिक मौत 
हजरत उम्मुल मोमिनीन सफिया रजियल्लाहु अन्हा 
आरोप नए रंग में हजरत रिहाना रजियल्लाहु अन्हा 
हजरत उम्मुल मोमिनीन जैनब  रजियल्लाहु अन्हा
हजरत उम्मुल मोमिनीन उम्मे हबीबा रजियल्लाहु अन्हा 
हजरत उम्मुल मोमिनीन मैमूना रजियल्लाहु अन्हा
हजरत मारिया रजियल्लाहु अन्हा 
रंगीले लेखक का नया रंग 
बहु पत्नी विवाह 
महाशय जी का इतिहास ज्ञान 
हमारी दरिया दिली 
दयानंद वेदों वाला 
स्वामी दयानंद ब्रह्मचारी नस्ल विच्छेदक और क्रोध वाले थे 
मुनाजात बदरगाहे मुजीउद्दावात 
इस्लाम का पेड़ 
पवित्र पेड़ से संबंधित कविता
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  रिसाला मुकद्दस रसूल पर उलमा ए किराम की राएं

             कहती है तुझको खल्के खुदा गायबाना क्या



आर्य समाजी जब कभी उचित जवाब पाते है तो कहा जाता है कि यह जवाब सिर्फ उत्तरादायी की राए है। और उलमाए इस्लाम इस जवाब के कायल नही । इसलिए इस जवाब पर उलमाए किराम की राए भी ली गई हैं जो निम्न है:

हजरत उलमाए देवबन्द- जिला सहारनपुर

रंगीला रसूल छाप कर आर्य ने जो नमूना सभ्यता और आर्यो की सच्चाई का पेश किया है, वह हकीकत में समाजी लिट्रेचर की मशहुर विशेषतांए दिल दुखाना ,सख्त बाते , झूठ बोलना और अंधे पक्षपात का ऐसा पूर्ण संग्रह है, जिसमें समाज के पहले अध्यापक(स्वामी दयानन्द )की नैतिक शिक्षा के विचार पूरी सफाई और स्पष्टता से नजर आ रहें हैं। ऐसी गंदी और गंदी और दुर्गन्ध तहरीर किसी आर्य की तरफ मन्सूब हो तो हमें कुछ भी हैरत नही हां हैरत अगर है तो मुसलमानेां के अत्यंत दर्जे के धैर्य पर कि आज अपने पाक रसूल की शान में ऐसे गन्दे और कमीने हमले देखकर भी उनमें कोई हरकत पैदा नहीं होती।
हक तआला अच्छा बदला दे मौलवी अबुल वफा सनाउल्लाह साहब अमृतसरी को जिन्होने “मुकद्दस रसूल “ लिखकर ऐसी गंदगी का जवाब बडी पवित्रता से, अंधेरे को उजाले से और असभ्यता का बडी सभ्यता से दिया और साबित कर दिया कि उस रसूल करीम सल्ल. के नाम लेने वाले जिनके आगमन की यह मंशा थी। इस गई गुजरी हालात में भी दुनिया के बडे बडे सभ्यता के दावेदारों से बढकर सभ्य हैं। सच यह है कि मौलवी साहब ने अपने खास रंग और संक्षिप्त वाक्यों में रंगीले महाशय का सारा ताना बाना बिखेर दिया है और अपने कलम की हरकत से झूठ व नफरत के वे सब गन्दे पर्दे एक दम चाक कर दिए है जिनके नीचे रंगीले महाशय ने उस मुकद्दस रसूल की पाक जिंदगी को नंगा करना चाहा था। 
खुदा तआला मौलवी सहाब की इस खिदमत को कबूल फरमाए और हमें काम करने की हिम्मत प्रदान करे। (मौलाना शब्बीर अहमद उसमानी, मौलाना सिराज अहमद, मौलाना हबीबुर्रहमान । मदरसा देवबन्द)


मुरतजा हसन साहब

मैने रिसाला “मुकद्दस रसूल“ देखा। पक्षपाती आर्य की असभ्य आपत्तियों का बडी संजीदगी से जवाब दिया है। अल्लाह तआला आर्य समाज को हिदायत दे और मुसलमानों को दृढता प्रदान करें। मौलवी सनाउल्लाह साहब की कोशिश प्रंशसनीय है।

मौलाना मुहम्मद अब्दुल कासिम सैफ मुहम्मदी बनारसी

कुछ दिनो पहले हिन्दू मुस्लिम एकता ने वह पेड उगा दिया था कि पक्षपात व मतभेदो का नाम व निशान बाकी न रहा था। खुदा जाने इस मुबारक पेड  को किसकी नजर बद लगी कि बिगाड शुरू हो गया और गांधी के कथनानुसार श्आर्य समाज की आदत लडाई व तंग नजरी है”। आर्येा के पूजनीय श्रद्धानन्द जी ने जेल से बाहर आते ही शुद्धी संगठन के जहरीले पेड की खेती शुरू की जिसने आपसी मेल मिलाप के मुबारक जमाना केा सपनेां मे बदल दिया ओैर उस पेड के कडवे फल किताब ” रंगीला रसूल ” और ”विचित्र जीवन“ आदि की शक्ल मे बाजार मेें आए। खुदा भलाई प्रदान करे मौलाना शेरे पंजाब को कि उन्होने सबसे पहले इस हमले का जवाब दिया और क्या खूब जवाब दिया। माशाअल्लाह इस्लाम विरोधियों के जवाब में आपका भारी है और तर्जे तहरीर बडा सहज जिसमें सख्त कलामी का अंश तक नहीं है और यह कुछ इसी रिसाला के साथ खास नही है बल्कि आपकी सारी किताबें इसी तरह दिल दुखाने से पाक हैं।      

मुहम्मद अब्दुल कासिम बनारसी

मौलाना अब्दुल माजिद साहब कादरी बदांयुनी

 रिसाला “मुकद्दस रसूल” लेखक अल्लामा अबुल वफा खत्म होने से पहले पेज 64 तक पढा। आर्यो की बकवास पर खमोशी बेहतर लेकिन उनके हमले बेशक कभी जवाब दिए योग्य हैं कि शायद कोई भली रूह निकले जो इन बकवासों और आरोपों का जवाब देकर हक व सच्चाई के कुबूल करने की तडप दिखाए। हिन्दुस्तान के मशहूर मुनाजिर आर्य अल्लामा अबुल वफा अमृतसरी ने जिस सहजता संजीदगी व तहकीक से रिसाला “ “मुकद्दस रसूल” लिखा वह प्रशंसनीय व सन्तोषजनक है।

मेरे ख्याल से इसको उन सामान्य और देहाती आबादी के मुसलमानों तक अधिकता से पहुंचाया जाए और इस सेवा और प्रकाशन कार्य को तमाम तब्लीगी अंजुंमने अंजाम दें और इस काम का सवाब हासिल करे।
मैं समझता हूं कि विरोधियो की आपत्ति और आरोप मे यह रिसाला पाक पत्नियों का संक्षिप्त इतिहास है और पाक पत्नियों की संख्या के फलसफे का बेहतर जवाब व नमूना भी। फकत वस्सालाम।

फकीर अब्दुल माजिद कादरी बदांयुनी

जनाब मौलाना मुहम्मद किफायतुल्लाह साहब जमीयत उलमा दिल्ली

मैंने किताब ”मुकद्दस रसूल” के कुछ पृष्ठ के अध्ययन किए यह किताब जनाब फाजिल अल्लामा मौलाना अब्दुल वफा मोहम्मद सनाउल्लाह सहाब अमृतसरी ने आर्य महाशय की किताब ”रगींला रसूल” के जवाब मे लिखकर न सिर्फ कौमी और इस्लामी काम पूरा किया बल्कि मुसलमानों पर ताजा अहसान किया। मौलाना ने इससे पहले भी इस्लाम विरोधियो की बहुत सी किताबो के जवाब दिये हैें जो मुल्क मे प्रकाशित और लोकप्रिय हो चुकी हैं। किताब के अध्ययन से मुझे बहुत खुशी हुई हैं। एक इसलिए कि जवाब बडे माकूल ओर सतर्क लिखे गये हैं। दूसरे यह कि शैली बडी ही सभ्य है इस्लामी आचरण व इस्लामी सभ्यता का पूरा ध्यान रखा गया हैं। तीसरे इसलिय कि अपरिचितों के लिए धोखा खाने का मौका न रहा और ”वल्लाहु ला यहदिल खाइनीन“ का चरितार्थ हो गया।
अल्लाह से दुआ है कि मौलाना को तमाम मुसलमानों की तरफ से भलाई प्रदान करे और उनकी निष्ठापूर्ण कोशिश को सराहे और किताब ”मुकद्दस रसूल“ को मंकबूल और मुसलमानों को उससे लाभ पहुंचाए और तालिबीने हक के लिए उसको जरिया हिदायत बनाए। आमीन रब्बुल आलमीन!

मौलाना अब्दुश्शकूर साहब

सम्पादक रिसाला ”अलनज्म“ लखलऊ लिखते हैं इस हकीर ने किताब ”मुकद्दस रसूल“ को देखा आर्यो की तरफ से जो दिल खराश किताब “रगींला रसूल” प्रकाशित हुई थी और उसमें बडे असभ्य तरीके से बेहतरीन अबिंया सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पाक जिंदगी पर दिल दुखाने वाले हमले किए गए थे। इस किताब में मौलाना अबुल वफा सनाउल्लाह साहब ने उसी का जवाब लिखा है।
हकीकत यह है कि , 'इदफअ् बिल्लाती हि य अहसनु ' पर पूरा अमल हुआ है। आर्यो की तल्ख कलामी का जवाब मीठे शब्दो में दिया है और उनकी आपत्ति के तहकीकी जवाब देने के साथ आरोप के तौर पर उनके मजहब की हकीकत भी दिखाई है। आप सल्ल. के बहू पत्नि विवाह पर विरोधी की छींटा कासी का उचित जवाब देकर आप सल्ल. के पाक दामन को सारी आपत्तियो से पाक होना अच्छी तरह दिखाया गया है। उनके झूठे हवाला पर भी आलोचना की है और सबसे पहले आर्यो की शरारतों का सतर्क और इकरारी सुबूत दिया हैं।

मौलाना अब्दुल हलीम साहब सिद्दीकी 

नायब नाजिम जमीअतुल उलमा ए हिन्द फरमाते हे कि एक महाशय जी ने ”रगींला रसूल“ के नाम से एक किताब प्रकाशित की। जिसमें हमारे आका सय्यदना मुहम्मद रसूलल्लाह अलैहि व सलम की पाक जिंदगी पर बडे नापाक हमले किए और ताजदारे मदीना की शान मे गुस्ताखाना शब्द इस्तेमाल किए। जिसको कोई मुस्लमान एक क्षण के लिए भी बर्दांशत नही कर सकता। और उस किताब की हिमायत व प्रकाशन मे आर्य प्रेस ने पूरी ताकत लगा दी। 
जरूरत थी कि उन अनुचित आरोपो का संजीदा जवाब दिया जाता। खुदा का शुक्र है जिसने इन्ना लहू लहाफिजून का इज्हार फरमाया। इस जरूरत को पूरा फरमाया। हम तमाम मुस्लमान मौलाना के इस कलामी जिहाद के आभारी है। 
हकीकत तो यूं हे कि मौलाना ने “मुकद्दस रसूल ” लिखकर चौदहवी सदी मे इस फर्ज को पूरा किया। जिसको अहले नुबूवत में शायर रसूलुल्लाह सय्यदना हस्सान बिन रजि. मिम्बर पर खडे होकर मुश्रिकीन की हुजू के जवाब मे अदा फरमाया करते थे और जिसके बदले में ”अजिब व म अ क रूहुल कुदुसि“ के प्रतिष्ठित खिताब से सरफराज फरमायमा जाते थे। 
रिसाला ”मुकद्दस रसूल” की संदीदा शैली और सभ्य वाक्य इस पर गवाह है कि फरीजा हस्सानी की समानता ने मौलाना अबुल वफा को भी ताईद रूहुल कुदुस से सुशोभित कर दिया। और मौलाना इस गुस्ताख समाजी को बेहतर जवाब देने मे कामयाब हुए।
”मुकद्दस रसूल” का अध्ययन करने वालों को महसूस होगा कि आकाए नामदार सय्यदना मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्ल0 की जनाब में इस पाखंडी माहशय की और से जो गुस्ताखिया व अनादर किया गया उनको खत्म करने के और जवाब देने में खुद सरकारे रिसालत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के निर्धारित बचाव के उसूलों से पीछे नही हटा जा गया।

उत्तरदायी ने मकामे मुनाजिरा में “व जादिलहुम बिल्लती हि य अहसुन” की रौशनी को सामने रखा। और जवाब देते हुऐ “ला यजरिमन्नकुम श न आनु कौमिन अला अल्ला तअ्दिलू” को रौशनी का मीनार करार दिया। हकीकत मे ”रगीला रसूल“ जैसी नापाक किताब का जवाब ”मुकद्दस रसूल” अपनी बेहतर विशेषताओं के लिहाज से असत्य वादियों के लिए एक खुली चोट है।
तमाम मुस्लमानो का फर्ज है कि ”मुकद्दस रसूल” मे नबी सल्ल. की पाक जिंदगी के पाकीजा हालात पढें। मेरी इच्छा हे कि हर एक मुस्लिम घर में कम से कम एक प्रति ”मुकद्दस रसूल” की जरूर रहेंर। 
जिस जमात ने रगींला रसूल जेसी गन्दी किताब प्रकासित करके दुनिया के सामने ईमानदारी व संजीदगी को बेनकाब किया है उसको भी चाहिए कि ”मुकद्दस रसूल“ का अध्ययन करे ताकि उसको मालूम हो सके कि खुदा के जिस आखिरी और सच्चे रसूल की मासूम जिंदगी पर खतरनाक हमले किए गए हे उस रसूल के मानने वाले चौदह सदियां गुजरजाने के बाद भी उत्तेजित हुए बिना किस तरह अपने पाक मजहब की शानदार परम्परा को कायम रखते है।

जनाब मौलवी अब्दुल कय्यूम साहब

वकील प्रथम दर्जा हैदराबाद दक्किन

रिसाला ”मुकद्दस रसूल” पहुँचा। उसी समय से मेने इसका अध्ययन शुरू किया। हर हर वाक्य पर दिल आपको दुआ देता है। कुदसी अलैहिर्रहमा का शेअर है

रोजे कयामत हर दर दस्त व नामा  मन नीज हाजिरी तस्वीर दर बगल

आपने हुजूर सल्ल0 की तस्वीर वास्तविक व जाहिरी सहीह इस रिसाले मे खींचीं है। खुदा करे कि कयामत के दिन आपके वास्ते इस शेअर का मिस्दाक हो जाए और आपको खुदाए तआला ऊंचा दर्जा प्रदान फरमाए।

जनाब महाराजा सर किशन प्रसाद 

यमीन सल्तनत हैदराबाद दक्किन 

”मुकद्दस रसूल” को फकीर अच्छी तरह देखा। आर्य समाज ने ”रंगीला रसूल“ छाप कर जो अपनी सभ्यता व आचरण का नमूना पेश किया है वह समाजी लिट्रेचर की दिल दुखाने वाली कठोर स्वर की विशेषताओं मे है। इसमे आर्य के संस्थापक स्वामी दयानन्द की नैतिक शिक्षा पर धब्बा लगता है। यह फकीर नही समझता कि उनके अनुयायी अपने संस्थापक की बदनामी के इच्छुक हैं।
आर्य समाज की गुस्ताखी और सख्त कलामी पर अहले इस्लाम ने जिस सब्र व खामोशी से काम लिया वह हजरत रसूल अकरम सल्ल. की जबान ”लि तम्मि म मकारिमल अखलाक” की पूरी पूरी आज्ञा का पालन है। आपने ”रंगीला रसूल” का जवाब जिस सभ्यता से व जिस संजीदगी से लिखा है वह पैगम्बर इस्लाम के आचरण का उच्च नमूना है। आपने झूठ और पक्षपात व नफरत के वे पर्दे चाक कर दिये जिनके पीछे रंगीले महाश्य ने पाक रसूल सल्ल. की पाक और स्वच्छ जिंदगी को पोशीदा करना चाहा था। आपने वाकियात की तहकीक मे अपनी जिस व्यापक मालूमात से काम लिया है हक तो यह है कि यह आप ही का काम था। आपने इस्लाम का वह फर्ज अदा किया है जिसकी सख्त जरूरत थी। बल्कि मुस्लमानो पर अहसान किया है। जवाब की खूबी व लेखनी की संजीदगी और बयान की स्वच्छता बयान से उच्च है। आर्य साहिबों के बेजा हमलो का जिस योग्यता से जवाब दिया है वह काबिले इत्मीनान व लायके इम्तिहान है। हक तआला आपकी इस्लामी कोशिश को इससे लाभान्वित करे आपकी इज्जत व जिंदगी में वृध्दि करे। आमीन!

  इस्लामी समाचारपत्रो की राए

 ”मुकद्दस रसूल ” पर, दैनिक ”जमींदार” लाहौर,

अबुल वफा मौलाना सनाउल्लाह साहब अमृतसरी को गैर मु्िरस्लमों की मजहबीं आपत्तियों के मूंह तोड ओर ठीक ठीक जवाब देने मे जो खास सोहरत हासिल है वह मोहताजे बयान नही। नि सन्देह यह दावा किया जा सकता है कि मौलाना ने उस समय तक ईसाईयों, आर्यो और दूसरे गुमराह सम्प्रदायों के मुकाबले मे सत्य धर्म की जो महान सेवा की है, उनकी इस महान सेवा का हिन्दुस्तान के मुस्लमान इन्कार नही कर सकते। पाठको को मालूम होगा कि पिछले दिनो आर्य के एक महाशय ने ”रंगीला रसूल” के नाम से एक सख्त दिल तोडने वाली किताब प्रकाशित की थी। जिसमे इस कायनात के महत्वपूर्ण इंसान सल्ल0 की पाक जात पर अत्यंत सख्त और असभ्य आपत्तियां की गयी थीं। मौलाना सनाउल्लाह सहाब ने ”मुकद्दस रसूल“ में इस किताब का बडा सन्जीदा, उचित, शोधपूर्ण और ठीक जवाब दिया है और सबसे प्रमुख ओर काबिले जिक्र बात यह है कि यह जवाब किताब के अंदाजे तहरीर की सख्त अनुचित शैली के बावजूद मौलाना ने “जादिलहुम बिल्लाती हि य अहसनु” के रिश्ता इन्सानियत को हाथ से नहीं छोडा उलमाए किराम देवबन्द के कथन के मुताबिक ”गंदगी का पवित्रता से, अंधेरे का उजाले से और बदतमीजी का संजीदगी से” जवाब दिया है। “मुकद्दस रसूल” 130 पन्नो पर मौजूद है। हमारी हार्दिक इच्छा हे कि इस किताब का मुसलमानो में ज्यादा प्रकाशन हो ताकि वे समाजियों और दूसरे विरोधी सम्प्रदायों की बेकार, बेहुदा और अनूचित आपत्तियों से ठीक तरीके से पूरे तौर पर परिचित हो जाएं।   02.01.1925 ई0

“दैनिक सियासत लाहौर”

आर्य समाज के एक अयोग्य छुपे मुनाजिर ने किताब ”रंगीला रसूल“ प्रकाशित कर के जिस रंग मे मुस्लमानो के दिल को घायल किया था उसका अंदाजा वही लगा सकते है, जिनको बदकिस्मती से उसके अध्ययन का इत्तिफाक हुआ। उसके जवाब मे मौलाना सनाउल्लाह सहाब ने उक्त किताब लिखी है। मौलाना के लिए अजीब सौभाग्य की बात है कि अगर स्वामी दयानन्द जी संस्थापक आर्य समाज ने अपनी ”सत्यार्थ प्रकाश” में श्रीमान लाला लाजपत राय के कथनानुसार सुनी सुनाई बातों पर भरोसा करके इस्लाम पर एक सौ उन्सठ 159 आपत्तियां की थी तो उसका जवाब सबसे पहले मौलाना ने ही दिया था। उसके बाद पूर्व धर्मपाल वर्त्तमान गाजी महमूद साहब बी. ए. ने अगर तर्क इस्लाम, नख्ले इस्लाम, तहजीब इस्लाम और आदि किताबें लिखीं तो उनके जवाब मे भी सबसे पहले कलम उठाया इसलिए कुदरती बात थी कि “रंगीला रसूल” का जवाब भी आप ही लिखते। चुनांचे ऐसा ही हुआ, जैसी कि आशा थी। उलमा फुजला जिस रिसाला की प्रशंसा करने मे व्यस्त हो उसके बारे मे हमारा कुछ लिखना शायद गुस्ताखी हो। हम हर इस्लामी अंजुमन से जोरदार अपील करते है कि इस मुफीद किताब की यथा सौभाग्य प्रतियां खरीद कर तब्लीगी हल्को मे तकसीम करें। इसके अलावा हर मुसलमान को चाहिए कि इस किताब का अध्ययन जरूर करे। 11.10.1924 ई.

"सुलतान अख्बार मुम्बई”

“मुकद्दस रसूल“ इसके लेखक मौलाना सनाउल्लाह सहाब सम्पादक अख्बार “अहले हदीस“ अमृतसर में यह किताब “रंगीला रसूल” जिसमे सल्ल0 की शान मे अपमान जनक बाते लिखी गई है उस के जवाब मे लिखी गई है। वास्तव मे लेखक ने ”रंगीला रसूल” का जवाब बडी पाकीजगी के साथ दिया है। 28 सफर, 1343 हि0, 28.09.1924 ई.

"मुस्लिम राजपूत अमृतसर”

"रंगीला रसूल“ और “विचित्र जीवन“ आर्य समाज की सभ्यता व आचरण का बेहतरीन नमूना हैं। उनमें पैगम्बर इस्लाम सल्ल0 पर बडे नापाक और अनुचित, गंदे हमले किए गए है। मौलाना सनाउल्लाह साहब ने इन दोनो किताबो का जवाब ”मुकद्दस रसूल” मे दिया है जो हाल मे प्रकाशित हुई है। मौलवी सहाब को आर्यो के लिटेªचर मे पुर्ण महारत है। रंगीला रसूल का जवाब उन्होने मुंह तोड घटनाओं व तर्को से दिया है। हमारे ज्ञान मे यह जवाब है, जो उलमाए हिंद की तरफ से रंगीला रसूल के सम्पादक की सख्त दिली का दिया गया हैं। और बडे सभ्य अंदाज मे दिया गया है। 1.10.1924 ई.

"दैनिक आलमगीर अमृतसरी”

रसूल सल्ल. की निस्बत ”रंगीला रसूल” और ”विचित्र जीवन” के लेखक ने जिस अनैतिकता और बकवास का सबूत दिया है उसने मुस्लमानो के दिलो को टुकडे टुकडे कर दिया। पाक नबी की जात पर इस प्रकार के बेहुदा आरोप मुसलमानो की भावनावओं को चोट पहूंचाने के लिए लगाए गए है। वरना रसूल सल्ल. के अच्छे आचरण की दुनिया कायल है। दोस्त तो दोस्त, दुश्मन तक मानते है कि आप सल्ल. की जात उच्च गुणों व अच्छे आचरण का नमूना थी आप के वजूद से दुनिया की सभ्यता ने बडे लाभ हासिल किए। लेकिन पंडित काली चरण ने आपकी शान मे जो गुस्ताखाना रवैया अपनाया उससे मुसलमानो को सबक हासिल करना चाहिए। अमृतसर के मशहुर मुनाजिर मौलाना सनाउल्लाह साहब ने दो किताबो के जवाब मे ”मुकद्दस रसूल” नामी रिसाला प्रकाशित किया। जिसमे उन तमाम आरोपों का जवाब दिया गया जो पंडित काली चरण आदि ने नबी सल्ल. पर लगाए हैं। इस रिसाले के प्रकासन से जहां मौलाना ने आरोपो के परखच्चे उडाए वहीं नगीं सभ्यता और इस्लामी सभ्यता का व्यवाहरिक मुकाबला करके दिखाया। और बेहुदा लोंगों का जवाब संजीदगी से देकर आर्य समाज के सामने एक अनुसरण योग्य नमूना पेश किया। 10.10.1924 ई.

दैनिक वकील अमृतसर 

”मुकद्दस रसूल” इस नाम का एक रिसाला मौलाना सनाउल्लाह सहाब अमृतसरी ने आर्य समाजियों के रिसाला ”रंगीला रसूल” के जवाब मे लिखा है। आपको मुनाजिरा के फन मे महारत हासिल है। इस्लाम विरोधियों का कोई ऐसा हमला नही जिसका जवाब मौलाना की और से न दिया गया हो। जिस कदर ”रंगीला रसूल” उत्तेजित, अशलील और सभ्यता से परे है, उसी कदर ”मुकद्दस रसूल” बडी सहनशीलता, संजीदगी और शालीनता को लिए हुए है। रिसाला वास्तविक खूबियों के अलावा जाहिरी गुणों से भी सजा धजा है। 02.091924 ई0

"वतन लाहौर”

”मुकद्दस रसूल” के लेखक मौलाना सनाउल्लाह सहाब अमृतसरी पर ”वकील” ने जो समीक्षा की है इससे ”वतन” को भी पूरी सहमती है। यह रिसाला ”रंगीला रसूल” के जवाब मे लिखा गया हैं। आपको मुनाजिरा के फन मे महारत हासिल है। इस्लाम विरोधियों का कोई ऐसा हमला नही जिसका जवाब मौलाना की और से न दिया गया हो। जिस कदर ”रंगीला रसूल” उत्तेजित, अशलील और सभ्यता से परे है, उसी कदर ”मुकद्दस रसूल” बडी सहनशीलता, संजीदगी और शालीनता को लिए हुए है। हम हजरत ख्वाजा निजामी देहलवी की राय से सहमत हैं कि हैसियत वाले मुसलमानो को इस रिसाले की कापियां खरीद कर मुफ्त में तक्सीम करनी चाहिए। 

"अलमुस्लिम” बैंगलौर, 

”मुकद्दस रसूल” का बोल बाला। वह जिसने दुनिया की जिसने अंधियारी मिटाई, वह जिसने मानव जाति को सर्वकालिक यातना से निजात दिलाई।
”मुकद्दस रसूल” मौलाना सनाउल्लाह सहाब अमृतसरी ऐडिटर अखबार ”अहले हदीस” के कलम से यह किताब आर्य समाजियो के पलीद रिसाला ”रंगीला रसूल” के जवाब मे लिखी गई है। जिसके लेखक ने न सिर्फ अपने नाम पर पर्दा डालने की कोशिश की है, बल्कि नबी पाक सल्ल. के बहूपत्नी विवाह पर अटकल पच्चू आपत्तियां करते हुए दिल दुखाने, बेइमानी और बदजबानी की कोई कसर उठा नहीं रखी हैं। हजरत मौलाना ने जिस संजीदगी से ”रंगीला रसूल” झूठ के पर्दा को जिसके नीचे उसके लेखक ने पैगम्बर इस्लाम की पाक और शीशे की तरह चमकने जिंदगी को छुपाना चाहा था, तार तार कर किया है। इसके देखने से यकीनन आर्य समाजियों को तारे दिखाई देंगें। और जमीन पांव के नीचे से सरक जाएगी। और फिर वह कभी इस्लाम के और पैगम्बरे इस्लाम सल्ल. के बारे मे जहर उगलकर अपने प्रति विनाश मे न डालेंगें।

इस किताब मे उम्मुल मोमिनीन हजरत जैनब रजि. के निकाह के बारे मे तंग नजर व ना समझ जमाअतों मे सालो साल से जो बेअसल और बेबुनियाद कहानियां चली आती हैं उनकी खराबी इस तरज से साबित की गई है, जिससे बढकर तहकीक व तसदीक की मिसाल नहीं मिल सकती, जहां कहीं हजरत जैनब रजि0 के निकाह का जिक्र आया है वहां बडी बडी विश्वसनीय इतिहास की किताब के हवाले से इस्लाम दुश्मनों के हथकंडों की अच्छी तरह कलई खोली गई है। हमे यकीन हे आगे किसी मुखालिफ को ऐसी पोच और लचर आपत्तियां करने की हिम्मत न पडेगी। क्योंकि यह उम्मुल मोमिनीन की आत्म कथा की एक बेमिसाल तारीख है और इस्लाम दुश्मनों के बेजा हमलों की तहकीक व जांच से भरी हुई सुरक्षा।
इस किताब के शुरू में हर सम्प्रदाय के उलामा किराम की समीक्षाएं दी गई हैं। तमाम के तमाम इस बात से सहमत है कि हिन्दुस्तान के कुल मुस्लमान, क्या मर्द, क्या औरत, क्या जवान क्या बुढे, सब इसको अत्यन्त बहुमुल्य नेमत जानकर खरीदें और पढें। और हम हजरत ख्वाजा निजामी देहलवी की इस राय से सहमत है कि हैसियत वाले को इस किताब की कापियों को खरीद कर तक्सीम की जाए। 25.10.1924 ई0

"आर्य धर्म प्रकाश" लाहौर

"मुकद्दस रसूल" एक किताब का नाम है जो अमृतसर के मशहुर मुनाजिर मौलवी सनाउल्लाह सहाब ने ”रंगीला रसूल“ के जवाब मे लिखी हेै।
हां वही ”रंगीला रसूल“ जिसके खिलाफ मुसलमान समाचार पत्रों ने इतना शोर मचाया है कि आखिरकार गवर्नमेंट को इसके प्रकाशक के खिलाफ मुकदमा करना पडा। हम मौलवी साहब की इस किताब का दिल से स्वागत करते है। 
यह है मजहबी मैदान मे तबीयत का असली जोर दिखाने का ढंग। यह है इस्लाम को अन्य धर्मो के खिलाफ सच्चा दिखाने का तरीका। 
17 सूज, 22.09.1924 ई.
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खुदा की बारगाह में दुआएं

ऐ खुदा! ऐ आसमान व जमींन के मालिक! 
ऐ जमींन व आसमान बनाने वाले!
ऐ जुल इंतिकाम कुद्दूस खुदा! 
ऐ सच्चो के हामी और मददगार खुदा!
तेरे विश्वसनीय पाक रसूल की तौहीन और अपमान हो रहा है तू अपनी रहमत से पर्दापोशी कर रहा है। हम जानते है कि आखिरकार तू अपने प्यारो की मदद  और इज्जत जाहिर करेगा। जैसे की तू हमेशा करता आया है। और जैसा कि तेरा वायदा है। ”इन्ना ल ननसु रूसु ल ना वल्लाजी न आमनू “ ऐ कादिर तवाना खुदा! हमारा ईमान और असल मदद और हिमायत वही है जो तू करेगा। हम कमजोर है। तू जानता है कि हम कमजोरों से यही हो सकता है कि हम कलम उठाकर (वह भी तेरी मदद से) जवाब लिखें (वह भी तेरे समझाने से) 
ला-हव-ल वला कुव्व-त इल्लाह बिक।
तो हमारी दुआ है कि इस मुकद्दस काम मे हमारी मदद कर और इस तुच्छ की सेवा को कबूल फरमा और अपने बन्दो को इससे फायदा पहूँचा कर गुमराही से बचा।
अबुल वफा सनाउल्लाह, अमृतसरी मुहर्रम 1343 हि. अगस्त 1924 ई.।

 भूमिका

पहले मुझे देखिए

आर्यो की दिल दुखाने वाली तहरीर सुनकर लोग हैरान है कि यह लोग मजहबी गुफतगू में क्यों इतनी तेज मिजाजी और सख्त कलामी करते है। हमारे नजदीक इसका यह जवाब है कि जिस तरह बाप का असर बच्चे की जिस्मानी हालत पर होता है, उसी तरह उस्ताद, गुरू और पीर का असर आचरण और आध्यात्मिकता पर होता हैं। स्वामी दयानन्द ने किताब सत्यार्थ प्रकाश आदि मे जो रविश अपनाई है, उसके तीन नमूने हम बताते है। पाठको! खासकर अपक्षपाती पाठक ध्यान से पढें।
कुरआन मजीद की निंदा मे स्वामी जी ने अपनी किताब  सत्यार्थ प्रकाश में एक खास अध्याय लिखा है। जिसमें बिस्मिल्लाह से लेकर वन्नास तक आपत्तियां करते गए है। उन आपत्तियों के बारे में हुजूर सय्यदुल अंबिया अलैहिस्सलाम बल्कि स्वंय खुदा का खास शब्दो मे जिकर करते है। अतएव फरमाते है;

  • 1. वाह वाह देखो जी मुसलमानों का खुदा शोबदाबाजों की तरह खेल रहा है।
  • 2. वाह जी मोहम्मद सहाब! टापने तो गोसाइयों की समानता कर ली।
  • 3. साबित होता है कि मुहम्मद सहाब बडे वासना वाले थे। (अल्लाह अपनी पनाह मे रखे)
(सत्यार्थ प्रकाश, अध्याय 14, नम्बर 43, 86, 127) [उर्दू या उस जमाने की सत्यार्थ प्रकाश हिन्दी  में देखें]

स्वामी जी की सख्त कलामी सिद्ध है। यहां तक कि उनकी आत्मकथा वाले चेलो को भी तसलीम है। अतएव उनकी आत्मकथा उमरी कलां की भूमिका मे लिखा है;
एक दिन व्याख्यान (तकरीर) मे श्री स्वामी दयानन्द जी महाराज पुराणो की असम्भव बातों का खण्डन करते करते उनकी नैतिक शिक्षा का खण्डन करने लगे। उस समय पादरी स्काट मिस्टर रेड कलेक्टर जिला और मिस्टर ऐडवर्ड साहब कमिंश्नर किस्मत पंद्रह बीस अ्रग्रेंजों सहित मौजूद थे। स्वामी जी ने पुराणिकों की पंच कुवारियों का जिक्र करते हुए एक एक गुण बयान करना शुरू किए। और पुराणिकों (हिंदुओं) की अकल पर अफसोस किया कि द्रोपदि को पांच पति कराके उसे कुमारी करार देना और इसी तरह कुनती तारा मन्दूरी आदि को कुमारी कहना पुराणिकों की नैतिक शिक्षा को दोषपूर्ण साबित करता है। स्वामी जी की शैली ऐसी हास्य वाली थी कि श्रोता थकने का नाम नहीं जानते थे। उस पर साहब कलेक्टर और सहाब कमिशनर आदि अंग्रेज हंसते और खुशी व्यक्त करते रहे। लेकिन उस लेख को खत्म करके स्वामी जी महाराज बोले, पुराणियों की तो यह लीला है। अब करानियों की लीला सुनो,”यह ऐसे भ्रष्ट (नापाक) हैं कि कुमारी के बेटा पैदा होना बतलाते है और फिर दोष (गुनाह) स्वर्गीय शुदा स्वरूप परमात्मा (निर्दोष खुदा) पर लगाते हैं और घोर पाप करते तनिक भी लज्जित नही होते।” इतना कहना ही था कि साहब कलेक्टर और साहब कमिशनर के चेहरे मारे गुस्से के लाल हो गए। लेकिन स्वामी जी ने व्याख्यान इसी जोर व शोर से जारी रखा। उस दिन ईसाई मत के व्याख्यान के खात्मे तक खण्डन करते रहे दूसरे दिन सुबह को ही खजान्ची लक्ष्मी नारायण की साहब कमिश्नर बहादुर की कोठी पर तलबी हुई। साहब बहादुर ने फरमाया कि अपने पंडित को कह दो कि बहुत सख्ती से काम न लिया करें। हम ईसाई लोग तो सभ्य हैं, हम तो वाद विवाद मे सख्ती से नही घबराते, लेकिन अगर जाहिल हिन्दू और मुसलमान क्रोधित हुए तो तुम्हारे स्वामी पंडित के व्याख्यान बन्द हो जाएगे।”
(सुवानेह उमरी कलां दीबचा पृ. 6 ) 
इसलिए आर्य समाजी आजकल जो कुछ सख्त कलामी करते है वह स्वामी की जहरीली शिक्षा के असर से करते हैं क्यों?
मा मुरीदां रू वसूए सुलह चूं आरेम चूं
रू वसूए फितना व पैकार दारद पीरमा

स्वामी जी की तेज मिजाजी और कडवे स्वर की कडवाहट हम मुसलमानो को ही महसूस नही, बल्कि हिन्दुस्तान के लोकप्रिय लीडर सूफी मशरब मरन्द व मरन्जां का नमूना महात्मा गांधी ने भी स्वामी दयानन्द की किताब (सत्यार्थ प्रकाश) के बारे मे लिखा है:
"स्वामी दयानन्द ने इस्लाम और अन्य धर्मों की गलत तस्वीर दिखाई है उनकी किताब सत्यार्थ प्रकाश बडी निराशजनक है।” (यंग इंडिया 29 मई 1924 ई. अनुवाद साभार आर्य अख्बार प्रताप लाहोर 4 जून 1924 ई.)

स्वामी जी के अलावा गांधी जी ने मौजूदा आर्यों के बारे राए व्यक्त की कि: आर्य समाजी तंग नजरी और लडाई की आदत की वजह से या तो अन्य धर्मों के लोगो से लडते रहते हैं और अगर ऐसा न कर सकें तो आपस में एक दूसरे से लडते झगडते रहते हैं।”  (प्रताप 4 जून, 1924 ई.)

बस फिर क्या था जो दावा गांधी जी ने जबानी किया था। आर्यों ने उसकी दलील बयान कर दी। अर्थात समाज की चारों तरफ से महात्मा गांधी पर आवाज कसी गई। वेदिक धर्म से जाहिल मुसलमान को खुशामदी आदि कहा गया। इसके बाद हिन्दुस्तान के एक विशिष्ठ अर्ध सरकारी अगं्रेजी अख्बार पानीयर मे एक नोट निकला जिसका अनुवाद यह है: 

मिस्टर गांधी और आर्य समाज के आपसी मतभेदो का हवाला देते हुए टाइम्स आफ इंडिया लिखता है कि मिस्टर गांधी ने यह एक आम सच्ची बात कही है, कि आर्य समाजी इस कौमी विवाद के जो अब देश मे फेल रहा है, बडी हद तक जिम्मेदार है और उसने दो एक समाजियों के नाम भी लिए हैं। जिन्होने इस तहरीक मे रहनुमाई की है। हर एक आदमी यह जानता है कि मिस्टर गांधी ने अपने बयान मे असली मामले से ज्यादा नहीं कहा। झगडे की बिना तहरीक से शुद्धी से शुरू होती है जो समाजियो ने यूपी आगरा आदि मे एक साल पहले आरम्भ की थी और लगभग सब झगडो मे जो दोनो कौमौ के बीच हुए, सामाजियो के कारनामो की खोज मिलती है। कुछ समाजी जैसे स्वामी दयानन्द जी कहते है कि वह मुसलमानो के खिलाफ कुछ नही करते बल्कि सिर्फ हिन्दुओं के हालात को मजबूत करते है ताकि हिन्दू और मुसलमान दोनो बराबर के हालात मे निभर्य रहे। दुसरो ने खुलकर मुसलमानो के ,िखलाफ तकरीरे की। चाहे समाजी रहनुमाओ का मकसद मुसलमानो को डराना या उनको मुहब्बत से आज्ञा पालक बनाना हो। यह हर एक को मालूम है कि उनकी इस जद्दोजहद से मुसलमान नाराज हुए और इस बात से समाजी भी परिचित है। मिस्टर गांघी के बयान ने छींटा काशी का एक तुफान खडा कर दिया है। तमाम हिन्दुस्तान मे समाजी मिस्टर गांधी के खिलाफ बडे जोर से विरोघ कर रहे हैं। मगर उनका यह विरोध दिखावा और खालिस नही मालूम हुआ। क्योंकि समाजी और अन्य हर एक को इस बात का पता है इनका यह तब्लीगी काम मुस्लिम हल्को मे किस तरह देखा जाता है”
                       (पानीयर इलाहाबादी, 23 जून, 1924 ई.)।

जब इस पर भी समाजियो का जोश ठण्डा न हुआ तो अल्लाह ने आर्यों मे एक विश्वसनीय गवाह पैदा कर दिया। जिसे माहात्मा गांधी जी की अर्थात पंजाब के बहुत बडे लीडर लाला लाजपत राय जी ने स्विजरलैण्ड से एक लेख अपने अख्बार “वन्दे मातरम” लाहौर मे प्रकाशित कराया जिसका टुकडा यह है:
“मैं 1882 ई. के नवम्बर मे आर्य समाज का मिम्बर बना और 1920 ई. में मैनें अपना सम्बंध उससे पूरी तरह खत्म कर लिया। मैं अपने 38 साल के अंदरूनी अनुभव से यह कह सकता हूॅ कि महात्मा गांधी ने आर्य समाजियो पर जो आलोचना की है वह उनकी मोहब्बत पर दलालत करती हैै। इसमे बहुत कुछ सच्चाई है आर्य समाजियों पर वाजिब है कि नाराजगी के रेजुलेशन पास करने के बजाय शांति और ठण्डे दिल से उस पर गौर करे।“                 (साभार आर्य गजट लाहौर, 7 अगस्त 1924 ई.)।

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गांधी जी ने नहला पर दहला चोट यह की कि यह भी लिख दिया कि:
“इस्लाम छोटा नही है, हिन्दूओं को भक्ति के साथ उसका अध्ययन करना चाहिए। फिर वे उसके साथ मुहब्बत करेंगें। जिस तरह में करता हूॅ।(अनूवाद यंग इडिया प्रताप, 4 जून 1924 ई.)।

बस फिर क्या था आर्यों ने गांधी जी से फुरसत पाकर इस्लाम और पैगम्बरे इस्लाम पर हमले शुरू कर दिये। उन हमलो मे से एक हमला किताब कि सूरत मे यह है, जिसका नाम “रंगीला रसूल” है। इस किताब मे हजरत सल्ल0 के घरेलू हालात ऐसे बुरे तरीेके से और दिल दुखाने वाले अंदाज से लिखे हे कि मूल्क मे घूम मच गई। यहां तक कि महात्मा गांधी जैसे नम्र स्वभाव और सहनशील बुजुर्ग ने भी उस किताब पर नफरत व्यक्त की। गर्वमेंट ने उस किताब को आपत्ति जनक जाना। मगर चूंकि बुजदिल लेखक ने उस पर अपना नाम दर्ज नही किया था इसलिए गर्वमेंट ने उस किताब को प्रकाशित करने वाले पर मुकदमा चलाया। गर्वमेंट का जो फर्ज था उसने उसे अदा किया। असल लेख का जवाब देना हकूमत का काम नही, बल्कि हम मुसलमानो का है। इसलिए जिस तरह गर्वमेंट ने अपना फर्ज अदा किया है हम भी अपना मजहबी फर्ज अदा करते है। अर्थात जवाब देते है ताकि मुसलमानो के दुखीं दिलो पर मरहम लगकर राहत मिलें और 
मुल्क मे चैन व शांति पैदा हो।

पक्षपात और अनुचित हिमायत
बावजूद यह कि किताब बहुत ही असभ्य और दिल को चोट पहुॅचाने वाली है। लेकिन आर्य अखबार इसकी प्रशंसा मे अपना सारा ऐडी चोटी का जोर लगा रहे हैं। अतएव आर्य समाज की हिमायत का एक मात्र ठेकेदार अखबार प्रताप लाहोर लिखता है:

“रंगीला रसूल” पर बेकार की चीख पुकार

मालूम होता है कि हमारे मुसलमान दोस्त महात्मा गांधी को आर्य समाज के खिलाफ भडकाने मे ऐडी चोटी का जोर लगा रहें है। अतएव उन्होने एक बडी उचित किताब ”रंगीला रसूल“  के खिलाफ कि जिसमें हजरत मुहम्मद सल्ल0 की जिंदगी पर सरसरी नजर डाली गई  है। महात्मा गांधी से घोषणा निकलवाई है। हम दावे से कहते है इस किताब ”रंगीला रसूल“ की शैली ऐसी शरीफाना और उचित है कि अपक्षपाती आदमी को इस पर आपत्ति नही हो सकती।(प्रताप 26 जून 1924, पृ. 2)।

इस्लामी अखबारों ने उल्लिखित किताब पर जब नफरत व्यक्त की तो इसी आर्य समाजी अखबार ने इस प्रकार की गलत किताब लिखने की वजह अपना हक बताया कि:
“अगर बुद्ध, ईसा, नानक और दयानन्द पर आलोचना की जा सकती है तो कोई वजह नही कि मुहम्मद सल्ल. उससे उच्च हों। कोई भी हिन्दू या आर्य हजरत के बारे मे किसी प्रकार का अनादर अपने जेहन में नही ला सकता, हां वह इस उसूल के लिए लडेंगें कि हजरत की जिंदगी आलोचना से उच्च नही। मुसलमानो को कोई हक नही कि जब कभी गैर मुस्लिम इस लेख पर कलम उठाए तो वे आपे से बाहर हो कर उसे कुचलने की कोशिश न करे।” (प्रताप 12 जुलाई, 1924 ई. पृ. 2, कॉलम 2)

शायद इसी उसूल से देव समाजियो ने लाहौर से दयानन्द जी के हालात पर पूरी आलोचना करने को कुछ ट्रैक्ट (आर्य समाज के संस्थापक दयानन्द की जिंदगी आदि लेखक अमर सिंह प्रकाशन अक्टूबर 1916 ई. आदि) प्रकाशित किए थे। 
जिसका जवाब आर्यो से न दिया जा सका। या हमने नही देखा, हमारा हक था कि इसी उसूल के मातहत हम उनमे से नमूना दिखाते। 
मगर हम मजबूर हैं। इसी रसूल की शिक्षा की पाबंदी मे जिसने हमे फिरऔन जैसे दुश्मन को तब्लीग करते हुए हुक्म दिया:
"तब्लीगे दीन मे सख्त दुश्मन के सामने भी नम्र स्वभाव से बात किया करो।"

अब हम रंगीले लेखक का रवैया बताने को एम मिशाल पेश करते है। जिससे इसके हिमायती को मालूम हो सके कि उल्लेखित लेखक ने हजूर अलैहिस्सलाम की जिंदगी के हालात पर सिर्फ नुकताचीनी नही की बल्कि आरोप लगाने का भी काम किया है। जिससे आर्य लेखक और उसके हिमायतियों की सभ्यता और न्याय का हाल मालूम हो सकेगा। महाश्य जी हजरत खतीजा रजि. के निकाह की बावत लिखते है:

"मुहम्मद सल्ल. बचपन मे ही यतीम हो गये थे। बहुत समय तक मां की ममता का सुख न देखा था। उस उमर दार औरत (खतीजा) से विवाह कर लेने से दोंनों मुरादें (मां और बीवी की) हासिल हुई।"(पृ. 11)

पाठक गण! इन सभ्य लोगो की सभ्यता का अंदाजा लगाए कि किन दिल तोडने वाले शब्दो मे नबी सल्ल. की बीवी हजरत खतीजतुल कुबरा रजि. को एक मायना से नबी सल्ल. की मां बताया है। यह है आर्यन सभ्यता का नमूना और यह है उनकी हिमायत हक की मिसाल जिस पर हमें यह कहने का हक हासिल है:

न पहूंचा न पहूँचेगा तुम्हारी जुल्म केशी को
बहुत से हो चुके हैं गरचे तुमसे फितना गर पहले

समाजियों ! तुम तो अपने मूंह से बडी सभ्यता के दावेदार हो और कहा करते हो कि हम वही बात कहतें हैं जो इस्लामी किताबों मे दर्ज है, क्या इस बेहुदा मिसाल का सुबूत भी तुम किसी इस्लामी किताब में दिखा सकते हो?

दूसरा रिसाला

रंगीला रसूल के अलावा इस प्रकार का जहरीला रिसाला ”विचित्र जीवन” लेखक पंडित काली चरण नागरी मे प्रकाशित हुआ। जिसका उल्लेख भी मौका़-ब-मौका होगा।

मुसलमानो से खि़ताब
बिरादराने इस्लाम! आज कल जो कुछ गलत बातें आप लोग इस्लाम और पेगम्बरे इस्लाम अलैहिस्सलाम की शान में सुनते हैं और उनसे दुखी होना लाजमी है, मगर एक मायना से यह खुशी की बात भी है। वह यूं कि विरोधियों की बुरी बातों और दिल तोडने से कुरआन मजीद की एक भविष्यवाणी की पुष्टि होती है। तो आप ध्यान से सुनिये इरशाद है:
तुम लोग इस्लाम विरोधियों से सख्त सख्त बातें सुनोगे। (पारा 10, रकूअ 4)

अर्थात इस्लाम विरोधी तुम्हारे और तुम्हारे मज़हब के हक में सख़्त से सख़्त बुराई करेंगें। जो तुम हमेशा सुनोगे। तो यह है भविष्यवाणी। मगर तुम मुसलमानो का उस समय फर्ज क्या होगा। 
वह भी सुन लो:
अगर तुम मुस्लमान (उनकी सख़्त बातें सुनकर ) सब्र करोगे और खुदा से डरते रहोगे तो यह खु़दा के निकट पसन्दीदा काम होगा।(पारा 10, रकूअ 4)

तो बिरादराने इस्लाम ! आप लोगों को जो ऐसी सख़्त बातो से दुख होता है तो उस दुख मे उस खुदाई हुक्म को अपना उद्देश्य बना लिया करो। और सख़्त बाते करने वालों को खुदा के हवाले कर दिया करो। सच तो यही है:

आर्य लेखक का बात करने का ढंग

जब से स्वामी दयानन्द ने आर्यों को सख़्त बात करने की और दिल दुखाने की घुट्टी दी है। आर्य समाज उस रंग मे रंग गए हैं। खासकर हमारे सरदार मुहम्मद सल्ल. की शान वाला शान मे उनकी यह हालत है कि सिर्फ एक वचन के कलिमे से याद करते हैं। जैसे: मुहम्मद आया, मुहम्मद आ गया, मुहम्मद बोला आदि। हालांकि किसी मामूली राजा, नवाब बल्कि किसी समाज के प्रधान का जिक्र भी इज्जत से करते हैं। लेकिन करोडों बल्कि शुरू से आज तक अरबों इंसानों के सभ्य और जान से प्यारे मजहबी़ पेशवा का नाम ऐसे शब्दो से लेते हैं कि सुना नही जाता। उसके जवाब मे अगर हम भी उनके गुरू को मात्र दयानन्द के एक वचन शब्द से याद करते तो हम पर कोई आपत्ति न होती। लेकिन हमने न कभी पहले ऐसा किया न करेंगें। क्यों? इसलिए कि हम जिस रसूल सय्यदुल बशर सल्लल्लाहु अलैहि व सलम की वजह से नाराज हैं उसी की शिक्षा है कि:
हर इंसान से उसकी इज्जत के लायक बर्ताव किया करो। (हदीस)
अर्थात जो कौम का बडा है, उसके साथ बडों का सलूक किया करो। आर्य समाजी अगर इस नैतिक शिक्षा पर अमल नही करते तो वे उसके जिम्मेदार हैं। हम क्यों अपने सरदार के हुक्म का उल्लंघन करेn

मुहम्मद (सल्ल.) और स्वामी
तो आगे हमउ च्च आचरण के उस्ताद, महान सुधारक पैग़म्बरे इस्लाम अलैहिस्सलाम की शिक्षा की पाबन्दी में दयानन्द को सिर्फ दयानन्द नही लिखेंगें, बल्कि अपने दस्तूर के अनुसार उनके सम्मानित लकब़ से स्वामी दयानन्द लिखेंगें ताकि साबित हो सके कि इस्लाम के हीरो ने दुनिया में नैतिक शिक्षा शिक्षा किस ऊंचाई तक पहुुंचाई है।

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आर्यों मे निकाह का तरीका

रंगीले लेखक की सारी आपत्तियां हुजूर अलैहिस्सलाम की घरेलू जिंदगी पर हैं। इसलिए सबसे मुकद्दस आर्यों और इस्लाम की शिक्षा निकाह को देखना है कि इन दोनों मे क्या फर्क है। कौन नही जानता की इस्लाम मे निकाह का यह तरीका है कि मर्द औरत की मर्जी से दोनों का समझौता किया जाता है कि तुम एक दुसरे से उम्र भर पाक निबाह करना। अगर कोई पक्ष (मर्द हो या औरत) निकाह करने से नाराज हो तो निकाह न होगा। इसके विपरीत, 
आर्यो के गुरू की शिक्षा है।

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विवाह की आठ क़िस्में 

1. दुल्हा व दुल्हन दोनों पुरी तरह ब्रह्मचर्य से परिपूण धार्मिक और सदाचारी हों उनकी परस्पर रजामंदी से विवाह होना बराहम कहलाता है।

2 भारी यज्ञ का काम करते हुए दामाद को जेवर हुई लडकी का देना, देव।

3 दुल्हा से कुछ लेकर विवाह होना, आरश।

4 दोनों का बियाह धर्म की तरक्की के लिए होना, प्रजापत।

5 दूल्हा और दूल्हन को कुछ देकर बियाह करना, आसुर।

6 बेकायदा बेमौका किसी वजह से दूल्हा और दूल्हन की आपसी इच्छा से मेल जोल होना, गांधरप।

7 लडाई करके जबरन अर्थात छीन झपट या धोखे से लडकी को हासिल करना, राक्षस।

8 ख़ुफता (सोई हुई) या शराब पी हुई या पागल लडकी से बलात्कार करना पीषच विवाह कहलाता है। इन सब विवाह मे बराहम सबसे श्रेष्ठ, देव, आरश, और प्रजापत दर्मियाने आसुर और गांधरप, निम्नतम राक्षस निन्दित और पीषाच अत्यन्त ग़लत है। (सत्यार्थ प्रकाश, पृ0 118, अध्याय 4, नम्बर 41)

ये शब्द हमने उर्दू सत्यार्थ प्रकाश पहले एडिशन से नकल किए हैं। चौथे एडिशन मे आर्यो ने एक कमाल किया है। शुरू में यह शब्द बढा़ दिए हैं। “विवाह (औलाद पैदा करने का तरीका) आठ प्रकार का होता है।
यह ज्यादती भी हमें हानिकारक और उनको लाभकारी नहीं बल्कि हमें लाभकारी है। स्वामी जी ने नम्बर 7 और 8 को निन्दित और बडा अप्रिय लिखा है। लेकिन इतना तो माना है कि निकाह हो जाता है और औलाद जो इन दो किस्मों से पैदा होगी जाइज वारिस कहलाने की हकदार है।

पाठको ! सोच विचार कीजिए, किस कदर लज्जाजनक और खतरनाक शिक्षा है। किसी की मासूम लडकी को जबरदस्ती या धोखे से छीन कर निकाह जाइज होगा। यधपि अप्रिय और नापसन्द कहा जाए। लेकिन बीवी बनाकर उस मज्लूम लडकी को रखने का हक तस्लीम है और उससे पैदा हुई औलाद जाइज होगी। (उफ रे जुल्म!) नम्बर 6 भी खास विचार योग्य है जो बेशक जाइज है । आर्यों की घरेलू जिंदगी की शुरूआत दिखाकर हम असल जवाब पर आते है। 

जवाब की भूमिका

रंगीले लेखक ने नबी सल्ल0 की पहली पच्चीस साला जिंदगी को ब्रहमचार्य (पाक) जिंदगी कहकर एक खुफिया सी चोट की है। अतएव उसके शब्द यह है:
“ हम सर्व प्रथम एक नजर मुहम्मद सल्ल. के ब्रह्मचर्य के जमाना पर डालते हैं क्योंकि दुनिया मे ऐसे बोसीदा दिमाग लोग मौजूद है जो बेकार मे ही भले मानसों की आदात पर सन्देह करते हैं। हम मुहम्मद सल्ल. को बह्मचारी मानते हैं, क्यूंकि उसने इस बारे मे गवाही आप दे रखी है, एक स्थान पर आप फरमाते हैं:
“ एक रात में कुरैशी लडके के साथ मिलकर रेवड चरा रहा था। मैने उस लडके से कहा कि अगर तू रेवड कर पासबीनी करे तो मैं जाऊं और जिस काम में नवजवान रात का समय गुजारते है, में भी गुजार आऊं। यह कहकर मुहम्मद सल्स0 मक्का चला गया, मगर वहां एक शादी की दावत ने उसका ध्यान अपनी तरफ कर लिया और उसे नींद आ गई।”
एक और रात वह फिर इसी इरादे से मक्का पहुंचा। मगर जन्नत के नगमों ने उसके दिल का बस में कर लिया। वह वहीं बैठ गया और सोते सोते सुबह कर दी । मुहम्मद सल्ल. कहता है कि इन दो घटनाओं के बाद मेरा दिल बुराई की तरफ नहीं बढा।” (हयात मुहम्मदी मुअल्लिफा मयूर साहब)


”हमें मुहम्मद सल्ल. के कथन पर भरोसा है क्योंकि उसे आमीन कहा गया है, हम मानते हैं कि उसका दिल गुनाह के कामों से बरी था। दो ही बार उसे शैतान ने गुमराह किया, मगर अल्लाह की मदद शामिले हाल हुई और हमारा रंगीला रसूल उस गुमराही के कुंए से बाल बाल बच गया। कम से कम उसने व्यवहार में गुनाह नही किया।“ (पृ0 7-8)

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इस बयान मे सर विलियम मयूर के हवाले मे महाश्य ने सख़्त बेइमानी की है पहले हमस र विलियम की असल इबारत नकल करते है। मयूर साहब ने एक सुर्खी मुक़र्रर की है। 

मुहम्मद की प्रतिष्ठित व पवित्र जवानी

अनुवाद: जवानी की उम्र में मुहम्मद (सल्ल.) के बर्ताव (आचरण) की सच्चाई और आदतों की पाकी के बयान करने में जो मक्का के लोगों मे बडी कामयाबी थी। सब लेखक सहमत हैं।
1. All the authorities agree in ascribing to the youth of Mohammad a correctness of department a purity of manners care enemy the people of Macca.

इसकी शर्म और हया सर्म्पूण तौर पर महफूज बयान की जाती है।
 2. His moderty is said to have been miraculonas by preserieed 
पैगम्बर साहब (सल्ल0) से एक रिवायत यूं है कि मैं रात एक कुरैश लडके साथ बकरियों का गल्ला चरा रहा था।  

3. I was engaged one night (sarunsa tradition from the prophet) feeding the flocks in company with a bad of Qurriesh
मैने उस लडके से कहा कि अगर तुम मेरे गल्ले की हिफाजत करो तो मैं मक्का जाकर अपना दिल बहला आऊं। जिस तरह कि  नव उम्र लडके रात को अपने दिल बहलाने के आदी हैं।

4.And I said to him if thou with flocks of after my flock I will go in to macca and divert myself there as youth are went by night to divert him schurs .
लेकिन आप जैसे ही शहर की सीमा तक पहुंचे तो एक बारात के उत्सव ने आपका ध्यान अपनी तरफ फेर लिया और आप सो गए।

5. But no rooms bad be reached the precinets of the city, them a marriage feast engaged lils attention,be fat a sleep
फिर एक और रात को आप शहर मे उसी इरादे दाखिल हुए तो आप पाक लुकमों की वजह से रोके गए आप नीचे बैठ गए और सुबह तक सोए रहे।

6.One another night entention, he was errested by heaveninly srtrains of music
and sitting down he slept till morning।
blh rjg fQj vki lkalkfjd euksjatu dh bPNk ls cps jgsA

7. Thus he again escaped temptations.

इसके बाद मुहम्मद (सल्ल.)का कथन है, मैने फिर कभी भी बुराई का इरादा नही किया। यहां तक कि मैं नुबुवत के पद पर पहुंचाया गया।
8.And after this added Mohammad I no more sought aternice even I had attainded I had attainded in to the prophetic office
.

सर मयुर सहाब की यह अंग्रजी इबारत और उसका अनुवाद ही हजूर अलैहिस्सलाम की पाक जिंदगी का साफ साफ ऐलान कर रहे हैं लेकिन दुश्मन का ध्यान दिलाने के लिए हम इसका और स्पष्टीकरण करते है।

अरब में मजालिस होती थी। जैसे आजकल शालीन मुल्कों में क्लब होते है। लोग रात के समय वहो बैठकर शेअर व शायरी करते और मुल्की घटनाओं का वर्णन किया करते थे। इस रस्म का सुबूत किताब “बुलूगुल अरब फी अहवालुल अरब“ से मिलता है। मयुर साहब ने इस स्थान पर स्वंय तारीख तबरी का हवाला दिया है। तारीख तबरी को देखे तो उसके दूसरे भाग में ये शब्द मिलते है:
“अर्थात हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने साथी लडके को कहा कि मैं चाहता हूं कि मक्का मे जाऊं और इस तरह बातें करूं और हिकायतें सुनूं जिस तरह जवान लडके सुनते हैं।“

ये शब्द बात को बिल्कुल साफ कर रहे है कि मक्का में जाने से हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का समय शुरू से ऐसे मामूली कामों में खर्च न होता था । अर्थात महाश्य विरोधी भी मानता है:
“मुहम्मद सल्ल. एकान्त पसन्द आदमी था। विचारों की दुनिया में मस्त रहता। पहाडो में, मरूस्थल में, मैदानों में, एकान्त के गोशे मेे जा बैठता और अपने दिल से बातें किया करता था।“             (रंगीला रसूल, पृ. 12)
इस लिए हुजूर अलैहिस्सलाू ने इस मामूली काम को भी जो मुल्की रस्म के मुताबिक हर तरह जाइज था, बल्कि आज कल भी लाइब्रेरियों में अखबार के अध्ययन के रूप में अच्छा समझा जाता है अपनी ऊची शान के लिहाज से नापसन्द करके फरमाया:
अर्थात मयुर सहाब के कथनानुसार 
“ मैंने कभी भी (ऐसे जाइज) मक्रूह काम का इरादा न किया।”
समाजियो ! तुम्हारा रंगीला लेखक सच कहता है।
मुहम्मद सल्ल. की जिंदगी शिक्षा प्रद जिंदगी है। नसीहत भरी, इबानतों से भरपूर, वास्तव में रहनुमा हैं। वास्तविक मायनों में रहनुमा है ।“  (पृ0 6)
सच है:
मुझ में एक ऐब बडा है कि वफादार हूं में
उनमें  दो वस्फ़ हैं बद खू़ भी काम भी हैं
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संक्षिप्त जवाब

महाश्य लेखक की सारी आपत्तियां और गुस्ताखियों का खुलासा यह हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सलम ने बहुत सी बीवियां की और उन बीवियों से आप रंगरलिया करते। अर्थात बीवियों के अनुसार खुश मिजाजी से जिंदगी गुजारतें थे। मजें की बात यह है कि बडे गर्व से वह यह भी मानता है कि:
“मुहम्मद सल्ल0 का पहला निकाह 25 साल की उम्र में हुआ। यहां तो आर्य समाजियो का मानना होगा कि मुहम्मद सल्ल0 ने शास्त्र के मुताबिक जिंदगी का पहला हिस्सा ब्रह्मचारी रहकर गुजारा । मुहम्मद सल्ल0 ब्रह्मचारी था, उसका हक था कि शादी करे।”         (पृ. 7)
वह यह मानता है किः
मुहम्मद सल्ल. ब्रह्मचारी था, उसने पच्चीस साल की उम्र तक शादी नहीें की और जवानी की हालत के अनुभव के बावजूद बदकारी से बचा रहा।“
और विरोधी को यह भी तसलीम है:
“खाना दारी के पच्चीस साल की अवधि में सल्लएक ही बीवी पर आश्रित रहा और वह भी दो पतियों की विधवा जो निकाह के समय चालीस साल की और देहान्त के समय पैंसठ साल की थी । उस बुढिया से उस जवान की निभ गई। यह बात मुहम्मद सल्लके पवित्र जीवन पर दलालत करती है।“ (रंगीला, पृ.8)

सच है: श्रेष्ठता वह है जिसका दुश्मन भी कायल हो।
यह मान लेने और इकरार करने के बावजूद आर्य लेखक ने जो कुछ आपत्तियां नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की खानदारी पर की हैं। वे एक उसूली गलती की बिना पर है। इसलिए इस संक्षिप्त जवाब में हम पहले वे उसूल बताना चाहते हैं जिनकी पाबन्दी करना हर एक धर्मात्मा बल्कि हर एक शरीफ आदमी का फर्ज हैं।

कुदरती उसूल
आर्य समाज इस उसूल को गलती मानता है कि कानूने कुदरत खुदा का काम है जो काम कानूने कुदरत के मुताबिक हो वह आपत्तिजनक नहीें। उस पर आपत्ति करना स्वयं आपत्ति का निशाना बनना है। तो इस उसूल के मुताबिक हम देखते 
 और आर्य समाज को दिखाते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की घरेलू जिंदगी बिल्कुल कानूने कुदरत के मुताबिक थी। वे ध्यान से सुने:
हम इंसान मे तीन इच्छाओं का सबूत देखते है। खाने पीने की इच्छा जो पैदाइश के समय से मौत तक दूध पीते बच्चे, नाबालिग और बुढे सब को बराबर है। इनके कुदरती होने मे क्या शक है? (कदापि नही)
तीसरी इच्छा मर्द, औरत की है जो इंसानो के अलावा जानवरों में भी बराबर पाई जाती हैं। बालिग होने पर नर को मादा की और मादा को नर की तरफ रूची होती हैं जो पहली दोनों इच्छाओं की तरह बिल्कुल कुदरती है इसमें भी पहली की तरह किसी इंसानी काम को दखल नहीं। मतलब ये तीनों इच्छाएं बराबर कुदरती हैं। पहली दो इच्छाओं को पूरा करने के लिए जिस जिस तरह इंसान नैतिक और धार्मिक उसूल के मातहत पाबन्द है कि अपनी खाने पीने की इच्छाओं को पूरा करे। तीसरी इच्छा को पूरा करने मे भी पाबन्द है कि उन्ही उसूल के मातहत जिस तरह चाहे उसको पूरा करे अर्थात उसका मादा से मिलाप जानवर की तरह न हो जो बिल्कुल स्वार्थ पर आधारित होता है बल्कि सभ्यता के सही उसूलों पर हों। जिससे दोनो की जिंदगी पर कोई गैर मामूली अनुचित असर न पडे, इसी लिए कुरआन मजीद में जहां निकाह का जिक्र आता है एक जामेअ बरकत शब्द आता है जो सब खुशियों को शामिल है अर्थात:
निकाह इस उद्देश्स से करो कि सांस्कृतिक उसूल के मातहत पाकीजा जिंदगी गूजारे न सिर्फ वीर्य निकालने को। स्वामी दयानन्द भी इस उसूल के पाबन्द नजर आते हैं जो सभ्यता के उसूल के विरूध होने के बावजूद सारी उम्र ब्रहमचारी रहने के निकाह के ताल्लुक से रहना इंसानी तरीका और बेताल्लुक निकाह के मिलाप को हैवानी काम बताते हैं। (सत्यार्थ प्रकाश, अध्याय 4, पृ. 45)
जहां तक देखा जाता है सभ्यता के उसूल के मानने वाले सब सहमत हैं कि क्या इंसानी नफ्सानी इच्छा के पूरा करने और क्या नस्ले इंसानी के बाकी रखने को पति पत्नी का संबंध बहुत जरूरी है। चूंकि यह संबंध खास उस तीसरी इच्छा के पूरा करने के लिए है। इसलिए उस इच्छा की जितनी भी सूरतें होंगी उन सबके पूरा करने का जरिया यही एक ताल्लुक निकाह है जो आदमी अपनी समस्त इच्छाओं को इसी जरिए से पूरा करेगा वह सभ्य है ओर जो इसके सिवा और किसी जरिए की तलाश करेगा वह बुरा और राक्षस है। कुरआन मजीद में इस जाइज ताल्लूक के लाभ बताकर सूचना दी है:
“अर्थात जो लोग इस निकाह के ताल्लुक के अलावा किसी जरिए से इच्छा पूरी करेंगें वही कानूने कुदरत के विरोधी होंगे।

विस्तृत जानकारी 
ताकि आगे चलकर जवाब समझने में आसानी हो, मुनासिब है कि  तीसरी इच्छा की हम थोडी विस्तृत जानकारी दें।
कौन नही जानता कि मर्द को ओरत से और ओरत को मर्द से कई प्रकार के ताल्लुकात होते हैं, पूरी इच्छा तो किसी से छुपी नही। इससे कम दर्जा भी होती है। जिसको साफ शब्दो मे चूमना चाटना कहो या कुछ और कभी यह भी नहीं मात्र दिल्लगी की बातें ही हुआ करती हैं कभी साथ लेटने में मात्र मुलाकात है। मतलब यह कि कभी कुछ कभी कुछ यह हर किस्म के ताल्लुक ऐसे हैं कि उनमें किसी कौम की खास बात नही। बल्कि सब इंसान बल्कि सारे जीव भी इसमें शरीक हैं। कबूतर को देखिए कि कबूतरी के सामने किस मुहब्बत से नाचता है। किस किस तरह उसका दिल बहलाता हैं। मुर्गा जो कुबां पालने में सब जानदारो से इंसान के बहुत समान है किस तरह मुर्गी के सामने चहल करता और उसको खुश करने की कोशिश करता है? क्या किसी इंसान की शिक्षा से ? नहीं बल्कि कुदरती शिक्षा से। यही वजह है कि हर एक कबूतर और हर मुर्गा बन्कि एक चिडा बल्कि हर एक नर इसी तरह अपनी मादा से दिल बहलाता है। यह सब कुदरत के निशान हैं। इन पर आपत्ति करना कानूने कुदरत पर आपत्ति करने के बराबर हैं। जिसका किसी नास्तिक को भी साहस नहीं।
इसी मन्शा का नतीजा
यधपि आम तौर पर लडकी और लडके की उम्र का अंदाजा लगाया जाता है जैसे लडकी 12 साल की हो तो लडका 16 साल का या लडकी 15 साल की हो तो लडका 20 साल का। मगर कानूने कुदरत हमें बताता है कि जिस तरह खाने पीने में मनपसन्दी को दखल है। इसमें भी दोनों की मनपसन्दी ही एक उसूल सही है, अन्य कम, इसको किसी नेचुरल कवि ने यूं लिखा है:
काले गौरे पे कुछ नहीं मौकूफ
दिल के मिलने का ढंग और ही है

कुरआन मजीद ने इस कुदरती उसूल के मातहत यह फरमाया है: 
“जिन औरतों को तुम पसन्द करो उनसे निकाह करो।”
हम समझते है कि हमारा यह संक्षिप्त जवाब काफी है। अब हम विस्तृत जवाब पर आते हैं।

विस्तृत जवाब

हजरत उम्मुल मोमिनीन ख़दीजतुल कुबरा रजि.

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हजरत खतीजा रजि0 की शादी हुजूर अलैहिस्सलाम से उस समय हुई जबकि हुजूर सल्ल0 की उम्र चढती जवानी (25 साल) की थी और खदीजा रजि0 की उम्र चालीस साल। ऐसी जवान उम्र मे कोई नव जवान ऐसी उम्रदार औरत से शादी करना पसन्द नहीं करता। रंगीला लेखक यहां तक मानता है कि:
“हम खतीजा रजि. को माई कहेंगें क्योंकि उसकी उम्र चालीस साल थी। ज बवह मुहम्मद सल्लके हरम में दाखिल हुई या अगर हकीकत ही का व्यक्त करना जरूरी हो तो मुहम्मद सल्ल. उसके हरम मे दाखिल हुआ।“ (पृ.9)
आप माई कहें तो आपका सौभाग्य है। इसमें शक नहीं कि हमारी तो माइ नही बल्कि मां है। मगर तुमको आपत्ति क्या? पाठको! आपत्ति सुनिय ! रंगीला लेखक क्या मजे़ लेकर लिखता हैः
“मुहम्मद ने खतीजा को तिजारत का हिसाब दिया और अपनी मजदूरी लेकर रूख्सत हुआ। उसकी शर्मीली आंखे, जरूरत से कम गो जबान, कुदरती सुन्दरता उससे बढकर च्यापार का खरापन फिर बेतकल्लूफी और सादगी जो दिल में था वही जबान पर जो जबान पर था वही अमल में, बुढिया पर यह तत्काल असर कर गई। उसे (मुहम्मद) को अपनी अकेली जिंदगी का शरीक बनाना चाहा।“ (पृ. 10)
बन्दाए खुदा! इतनी लम्बी वार्ता की क्या जरूरत थी। सार ही में कह दिया होता:
हुस्ने यूसुफ दमे ईसा यदे बेजा दारी 
आंचा खूबां हमा दारन्द तू तंहा दारी
या अगर फारसी शेअर पर न चढता तो उर्दू शेअर ही लिख दिया होता:
हसीन हो, मह जबीं हो, दिल नशीन हो
नकब जिनके  हैं  इतने वह  तुम्ही हो
हजरत खतीजा ने अगर अपने लिए एकान्त का साथी पसन्द किया और हुजूर सल्ल. ने उसको शरीक राज बनाया तो इससे भला आपको क्या सवाल? हो एक तारीखी घटना आपने मयूर साहब की किताब “हयाते मुहम्मद“ से नकल की है अर्थात वह हमारे किसी तरह विरूध नहीं। मगर हम उसके बारे मे भी पाठकों को सूचना करते हैं कि यह सारा किस्सा सिरे से गलत है। वह किस्सा महाशय जी के शब्दो में यूं हैं। 
लिखता है:
“खदीजा का बाप भी जिंदा था। उसकी तरफ से डर था कि वह रास्ते में रोडा होगा। इस बीच खदीजा ने एक दावत की और उसमें अपने और मुहम्मद सल्ल. के खनदान वालो को बुलाया। शराब का दौर चलने लगा। खदीजा का बाप उस दौर में बह गया। हद से ज्यादा पी गया बूढा था। बहक उठा। यही वह मौका था जिसकी सबको ताक थी। उसे शादी के कपउे पहना दिए गए और खदीजा का निकाह हो गया। उसे होश हुआ तों हक्का बक्का रह गया। मगर पंछी पिंजरे से निकल चुका था। बुजुर्गों की सी सहनशीलता अपनाई और खामोश रहा।“ (हयाते मुहम्मदी मुअल्लिफा मयूर साहब)
मयूर सहाब स्वयं इस रिवायत के बारे में वाकदी का कथन नकल करतें हैं कि यह रिवायत गलत है इसके अलावा इस्लाम के मशहूर और प्रमाणित इतिहासकार बल्कि इतिहासकारों के उस्ताद इमाम इब्ने जरीर तबरी ने इस रिवायत को सतर्क यूं झुठलाया है कि:
अर्थात हजरत खदीजा का बाप जंग फुज्जार से पहले मर चुका था। और जंग फुज्जार इस निकाह से पहले की है।(तबरी, भाग 2, पृ. 97)
घर का भेदी
सुनो ! तुम्हारे दुसरे भाई पंडित काली चरण ने हवाशी मजमून पर हिंदी में विचित्र जीवन लिखा है इसमें वह लिखता है कि:
“हजरत की निकाह की मंजूरी को सुनकर ख़दीजा ने अपना सेवक अपने चचा उमर बिन साअद के पास भेजा कि मजलिस में आए।“ (पृ. 144)
ठससे साफ मालूम होता है कि बाप की मौजूदगी तुम्हारे बडे भाई को भी मान्य नही, खदीजा के बाप के शराब पीने और उसके बहोश होने से न इस्लाम पर, न नबी सल्ल. पर कोई आपत्ति है। इसलिए हम उसके ओर खंडन मे जाने की कोई जरूरत नही जानते। क्योंकि हमारी मन्शा हुजूर अलैहिस्सलाम का बचाव हैं। किसी और का नहीं और हुजूर के बारे मे तो महाशय के कलम से यह शब्द निकल गए या खुदा ने निकलवाए कि:
“खतीजा रजि. ने मुहम्मद सल्ल. को मुहम्मद बनाया। पच्चीस साल की अवधि मे जब तक वह मुहम्मद सल्ल. की बीवी बनकर जिंदा रही, मुहम्मद को दूसरी शदी का ख्याल नहीं आया। “
“आर्य शास्त्रों मैं खानदारी की अवधि पच्चीस साल मुकर्रर है यह अवधि मुहम्मद सल्ल. ने बडी पाकीजगी से बसर की । इसलिए हम इसे खानदार कह सकते हैं?“ (रंगीला, पृ. 15)
आपकी इतनी सच्चाई से हमं उम्मीद है कि अगर ईमानदार और ईशभय से हुजूर सल्ल0 की बाकी जिंदगी पर सोच विचार करें तो बजाए आराया खानादारी के “आर्य सरदार“ कहेंगे इंशाअल्लाह:
राह पर तुमको तो ले आए हैं हम बातों में
और खुल जाओगे दो  चार  मुलाकातों में

नतीजा

खुदा का शुक्र है कि विरोधी की निगाह में भी हुजूर सल्ल. की पचास साला उम्र साफ सुथरी और बेदाग हैं। बाकी भी विरोधी इंसाफ से देखेंगे। तो इसी नतीजे पर पहुंचेंगे।
महाशय के तीन झूठ
निकाह खदीजा के अन्तर्गत रंगीले लेखक ने तीन घटनाएं ऐसी झूठ लिखी हैं जो कभी माफ नहीं हों सकती।

पहला झूठ

“मुहम्मद को यकीन हो गया कि दुनिया गुमराह को रही है उसे अपनी कौम की हालत पर रोना आता । उसके दिल में गहरा दर्द सिस। जो आरबी भाषी के बडे प्रभावी शेअर की सूरत में यदा कदा जाहिर हो रहा था। यही कुरआन की पहली आयतें हैं। जो किसी अज्ञात कारण से कुरआन के आखिर में दर्ज की गई हैं। उनमें तडप है तेजी है, सच्ची तलब है। बडी आरजू है। हकीकत की तलाश हैं। (पृ. 13)
प्रभावी शेअर न नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लाम ने कभी बनाए न कुरआन मजीद में कोई शेअर मौजूद है बल्कि शेअर का खंडन है:
  न हम (खुदा) ने इस नबी को शेअर बनाना सिखाया, न उसको लायक है।

दूसरा झूठ

“मुहम्मद का दुख बढता गया और तसल्ली की सूरत न देखकर आखिर उसे ख्याल हुआ कि आत्महत्या कर लेनी चाहिए। आखिर इस रोने धोने की जिंदगी से फायदा? यहां खदीजा का उम्रदार होना काम आया कोई नव जवान औरत होती तो पति को पागल समझती और उसका साथ छोड देती। आप डरती और उसे डराती। खदीजा ने मुहम्मद को ढारस बंधाई मुहम्मद को शक था कि मुझ पर जिन्नों का जादू है। यह ईश्वरीय सकेंत नही, शैतान की करतूत हैं। खदीजा नें जिन्नों की परीक्षा की और मुहम्मद ने कहा कि या तो वह दुनिया को बदल देगा, या अपना ही खात्मा कर लेगा, तो खदीजा ने दुनिया के बदलने के इरादे को बल दिया और खुद उस नए मजहब की जिसके प्रचार का मुहम्मद ने मन्सूबा बांधा था। सबसे पहले अनुयायी हुई।“  (क-स-सुल अंबिया)
क़-स-सुल अंबिया में यह किस्सा नहीं है न जिन्नों का जादू, न शैतान की करतूत । बल्कि यह सब हवाला शैंतान की करतूत। बल्कि यह सब हवाला शैतानी संकेत कहें तो सही है। कोई गैरतमंद आर्य हमको क़-स-सुल अंबिया में यह हवाला दिखाए तो इनाम ले।

तीसरा झूठ 

“मुहम्मद को ईश्वरीय संकेत के समय सख़्त तकलीफ़ होती थी। उसके मुहं से झाग आने लगती, शरीर पसीना पसीना हो जाता । बाहर की सुध बुध न रहती। कुछ का ख्याल है कि यह मिर्गी के दौरे थे। मुहम्मद उस समय मरीज हो जाता। खदीजा उसकी सेवा करती । उस पर कपडा डालती पानी के छींटे देती। मतलब यह कि उसे होश में लाती।“(बुखारी, अध्याय वह्य) (रंगीला रसूल, 14)
बुखरी में यह हवाला नहीं जिसमे मिर्गी का जिक्र हो और और खदीजा के पानी आदि डालने का उल्लेख हो। यह आर्य महाशय की ईमानदारी का सुबूत है।
हां इन तीन झूठों के सिवा एक सच भी उसके कलम से निकल गया है। लिखता है:
अरब में पाप था। बडा भयानक पाप होता था और मुहम्मद का दिल भलाई के विचारों से भर रहा था। अरबी मूर्त्ति पूजक थे और उसने खुले मैदानों में बादल आसमानों में असीमित रेगिस्तानों में किसी असीमित ताकत का एहसास किया था उसे यकीन हो गया कि परमात्मा एक है और उसकी कोई शक्ल व सूरत नहीं।“ (पृ0 13)
महाशय सज्जनो ! याद रखना आगे को इस्लाम और मुसलमानों पर यह आरोप न लगाना कि खुदा को शक्ल वाला या शरीर रखने वाला कहते हैं। वरना हमें हक होगा कि हम तुम्हें यह शेअर सुनाए:
क्योंकर  मुझे बावर हो कि ईफा ही करोगे
क्या वायदा तुम्हें करके मुकरना नही आता

महाशय की माई

हजरत खदीजा रजि. के हक रंगीले महाशय ने इन शब्दों मे आस्था व्यक्त की है:
“इसलिए हम खदीजा को माई खदीजा कहेंगें कि वह उम्र में,
अक्ल में, सूझबूझ में, तजुर्बा व रखा रखाव मे माई खदीजा हैं।“(रंगीला, पृ. 16)
इसलिए हम भी आर्यों और मुसलमानों की माई (हजरत खदीजा) की दानिशमंदी, तजुर्बाकारी और सूझ बूझ के बारे मे व्यक्त करते हैं जो श्रीमान ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हक में उस समय व्यक्त किए थे जिस समय (महाशय के कथनानुसार)  वह अपने पति को ढारस बंधा रही थीं। न्याय करने वालों के लिए वे शब्द विचार्णीय हैं।
नबी सल्ल. ने खदीजा को कहा:
“मुझे अपनी जान का भय है। खदीजा ने कहा कदापि आप भय न करें। खुदा आपको कभी जलील न करेगा आप रिश्तेदारों का भला करतें हैं लावारिसों का बोझ उठाते हैं। बेकसों की मदद करते हैैं। मेहमानों की दावत करते हैं और मुसीबतों में लोंगो की मदद करते हैं।“  (सहीह बुखरी)
यह है राय महाशय की सर्वमान्य माई की जिसका सारांश यह शेअर है:
गज़ब के दिलरूबा हो ग़मगुसारे बेकसां तुम हो
मईने  नातवां  हो  मेज़बा  मेहमां  तुम  हो !!

माई के सपूतो ! क्या कहते हो?

हज़रत उम्मुल मोमिनीन आइशा सिद्दीका़

रजियल्लाहु अन्हा व अन अबीहा

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दूसरा हमला विरोधी ने 
हजरत सिद्दीका़ के निकाह पर किया है। रंगीले लेखक के बडे भाई काली चरण ने भी अपने हिन्दी रिसाला “विचित्र जीवन “ में हजरत आइशा सिद्दीका रजि0 के निकाह के बारे में कुछ रिवायतें निराधार लिखी है। जिनमें ईमानदारी और अमानत के खिलाफ अमल किया है। अतएव उसने बडे व्यंग से लिखा है कि: 
“जब नबी ने हजरत अबूबक्र रजि0 को आइशा से निकाह करने का पैगाम दिया तो उससे पहले अबूबक्र मुतइम बिन अदी से आइशा की बाबत वायदा कर चुका था। मगर हजरत की जिद के कारण वायदा पूरा न कर सका।“ (पृ0 140)
इस दावे पर हवाला दिया है रोज़तुल अहबाब पृ0 151 का जो हकीकत में पृ0 105 है। हम इस स्थान के असल शब्द नकल किए देते है ताकि न्यायी पाठक महाशय जी की अमानत और ईमानदारी पर सूचित हो सकें:
हिन्दी अनुवाद:
अबुबक्र सिद्दीक के दिल में शंका हुई क्योंकि उन्होंने मुतइम बिन अदी से आइशा का निकाह करने का वायदा किया था और अबूबक्र ने कभी वायदा खिलाफी न की थी। इस सबब से खैला (नबी सल्ल0 की दूत) को अबूबक्र ने कहा तू यहां मेरे घर ठहर, मैं आता हूं। यह कहकर अबूबक्र मुतइम के घर को गए, जब उनके घर में पहुंचे ताक उसकी बीवी ने उनको दूर से देखकर कहा, क्या तू ऐ अबूबक्र इस उम्मीद से मेरे लडके को लडकी देना चाहता है कि उसको मुसलमान कर ले। यह कभी न होगा। अगूबक्र ने मुतइम को पूछा कि आप भी यही कहते हैं। उसने कहा हां में भी यही कहता हूं। जब उन दोनों की बातें ऐसी व्यंग भरे स्वर में सुनी तो अबूबक्र ने उसको बेहतर जाना और अपने घर में आकर खौला को कहा कि पैगम्बर अलैहिस्सलाम की सेवा में अर्ज कर कि निकाह के लिए तशरीफ लाएं। खौला गई और अबूबक्र की तरफ से नबी सल्ल0 को पैगाम दिया। हुजूर तशरीफ लाए और आइशा के साथ आप सल्ल0 का निकाह को गया।
कौन नहीं जानता कि इस प्रकार की बातचीत लडके वालों की तरफ से रिश्ते का इंकार होता है न कि मुतालबा।
पाठको ! सोच विचार कीजिए कि सारी इबारत हजरत अबूबक्र सिद्दीक की सफाई और वायदा फा करने को कैसे साफ शब्दो मे व्यक्त कर रही है। मगर विरोधी ने आधी इबारत नकल करके अपनी अन्तरात्मा को कैसा गड मड किया।
इसी तरह लेखक विचित्र जीवन ने कैसा सफेद झूठ लिख दिया है कि:
“नबी ने अपनी प्यारी बीवी आइशा को नाच दिखाया।“
यद्दपि यह ऐसा गलत झूठ है कि लेखक को शर्माना चाहिए कि एक शिक्षित पार्टी का कायम मकाम होकर ऐसी गलत बयानी करता है तो जाहिल लोगों का क्या हाल होगा। घटना यह है कि मस्जिदे नबवी में हबशा के फौजी लोग फौजी करतब करते थे। जिसको आजकल बनावटी जंग कहते हैं। ऐसी बनावटी जंग को देखने का शैाक हर एक को होता है। हजरत आइशा सिददकी ने भी शैाक व्यक्त किया। हुजूर ने मकान की दीवार पर से उसे दिखाया वह नाच न था (क्योंकि नाच हिन्दुस्तानी मुहावरे में वैश्या रंडियों के गाने बजाने को कहते हैं) न कोई नाजाइज काम था। हां उसको नाच कहना आर्य लेखक की बेइमानी और मजहबी पक्षपात है। जिनकी शिकायत उनके गुरू स्वामी दयानन्द को भी ऐसे मजहबी पक्षपातियों से है। (देखें सत्यार्थ प्रकाश, भूमिका 7)
रंगीले लेखक ने इस वाक्य मे अपना सारा जोर ओैर सारी ताकत दिल दुखाने में खर्च कर दी है । सोच विचार कीजिए किस मिलावट और चर्ब जबानी से लिखता है:
“सिनफे नाजुक (औरत) का प्यार मुहम्मद के स्वाभाव में था, यह उसे मर्दों के लिए और खस कर मुत्तकी और परहेजगार मर्दोें के लिए एक बरकत ख्याल करता था। उसकी राए थी कि औरत का इश्क मर्द को भलाई करने का बढावा देता है। मुसीबत के दृढ बनाता है, आफत में दृढता प्रदान करता है, सीने को उभारे रखता है और रूह को नया करता रहता है।“ (रंगीला पृ0 118)
क्या आपत्ति ? हम भूमिका में इसका जवाब दे आए हैं कि औरत मर्द का ताल्लुक कुदरती है । जो कोई इस कुदरती संबंध को अच्छी तरह निभाता है वही शरीफ और ईश्वरवादी है जतो नही निभता वह दुराचारी या राक्षस है। महाशय जी सुनिए आपके गुरू ने हमारे हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अनुसरण या हिमायत में इसी प्रकार की शिक्षा दी है। आपको याद न हो तो कान धरिए!
औरतों की हमेशा पूजा करनी चाहिए
“बाप, भई और देवर उन (औरतों ) का सम्मान करे और जेवर आदि से खुश रखें जिनको बहुत बेहतरी की इच्छा हो वे ऐसा करें 
जिस घर में औरतों का सम्मान होता है उसमें आदमी ज्ञानी होकर देव नाम से प्रसिध्द होते और आराम से रहते हैं और जिस घर में औरतों का सम्मान नहीं होता सब काम बिगड जाते हैं।
जिस घर या खानदान में औरतें दुखी होकर तकलीफ पाती हैं वह खनदान जल्द तबाह व बर्बाद हो जाता है और जिस घर या खानदान में औरतें आनन्द से साहस और खुशी से भरी रहती हैं वह खानदान हमेशा बढता रहता है।
इसलिए मान मर्यादा की इच्छा करने वाले आदमियेां को चाहिए कि सम्मान और त्यौहार के मौके पर जेवरात, वस्त्र और आहार आदि से औरतों का हमेशा सम्मान किया करें। (सत्यार्थ प्रकाश, पृ0 124, अध्याय 4, नम्बर 48)
समाजी मित्रों! कहिए तो स्त्रियो की पूजा क्यिा करते हो?
 हां हम को स्वीकार है
कि हमारे हुजूर सल्ल0 की औरतें पर बहुत कुछ नजरे इनायत थी इसलिए तो हुजूर सल्ल0 ने सारे अरब देश बल्कि सारी दुनिया के विरूध्द अल्लाह के आदेशानुसान लडकी को मां बाप का बल्कि बीवी को पति का भी वारिस बनाया।
दयानन्दी सज्जनों ! इस मुहब्बत और न्याय की मिसाल जरा वेदिक धर्म मे तो दिखओ तुम्हारे स्वामी ने तुमको स्त्रियों की पूजा करनी सिखाई । मगर यह न हो सका कि बेचारियों को मर्दों के साथ विरासत में भी शरीक कर जाते। क्या यही इस्लाम की खराबी है? सच है:
गुल अस्त साअदी व दरचश्म दुश्मनान खार अस्त
इस संबंध मे दूसरा वाक्य महाशय लेखक ने कैसा गलत लिखा है। जिससे अपने साथियों की आंखों में मिटटी नहीं कंकरियां डाली हैं।
समाजियेां! ध्यान से सुनो !
1. “मुहम्मद ने शायराना तबीयत पाई थी।“(क्या सफेद झूठ है)
2. “खदीजा की अत्यधिक उम्र ने दुनिया में औरत की जवानी की बहार आनन्द उठाने दिया इस शक्तिशाली धारणा ने एक और रूप धार लिया दुनिया की औरते दिमाग से उतर गईं। जन्नत की हूरों के सपने आने लगे।“(रंगीला, पृ0 19)
महाशय सज्जनो! देखा इस्लाम का चमत्कार तुम्हारा वकील रंगीला लेखक इतनी सी इबारत में क्या कुछ बहकी बातें कर हिा हैं।पहले वाक्य का खंडन तो स्वयं कुरआन मजीद ने साफ साफ और खुले शब्दो में कर दिया है। ध्यान से सुनो!
“हम (खुदा) ने नबी को शेअर कहना नहीं सिखाया और न उसे लायक है।“
हदीस की किसी किताब या तारीख मे सुबूत नहीं मिलता कि हुजूर अलैहिस्सलाम ने कभी एक शेअर भी बनाया हो।
दुसरे वाक्यर का जवाब स्वयं महाशय के कलाम में मिलता है जो पहे भी पृ0 43 पर नकल हो चुका है और अब फिर नकल है, महाश्य लिखता हैः
“खानदारी की अवधि के पच्चीस साल मुहम्मद एक ही बीवी पर आश्रित रहो और वह भी दो पतियों की विधवा जो निकाह के समय चालीस साल की और देहान्त के समय 65 साल की थी। उस बुढिाया की इस जवान से निभ गई, यह बात मुहम्मद के पाकीजा स्वभाव पर दलालत करती हैं।“ (पृ0 18)
समाजियों तुम्हारा महाशय कैसे दिल व दिमाग का मालिक है कि पृ0 18 पर तो हजरत खदीजा जैसी बुढिया बीवी से निबाह करने को हुजूर अलैहिस्सलाम को पाक स्वभाव वाला कहता है, जो बिल्कुल सच है। मगर कुछ पंक्तियों के बाद 19 पर उस बुढिया से तनबाह करने को दुख व अफसोस करार देता है। यह किस प्रकार का जुल्म या बदहवासी है? दोंनों उल्लिखित इबारतें ध्यान से पढो।
हजरत आइशा सिददिका के निकाह पर सबसे बडी आपत्ति विरोधी को यह है कि दस साल की कमसिन लडकी थी और हुजूर की उम्र 53 साल थी । इसलिए महाशय जी मशवरा देते हुए अपनी राए व्यक्त करते हैंः
“मुहम्मद अबूबक्र की लडकी को अपनी लडकी बना लेता। उसकी शादी अपने हाथों से करता, दहेज देता और उसका बाप बनल जाता तो बडी अच्छी बात होती।“ (रंगीला, पृ0 21)
अल्लाह रे तेरी शान! यह उस कौम की तरफ से मशवरा है जो नेचूरल कानून को अपना उसूल जानती है। महाशय जी और उनके साथी जानते हैं कि मां बाप और औलाद का संबंध कुदरती है । बनावटी नहीं कि किसी के बननने से बने । इसी लिए कुरआन मजीद ने ले पालक को अपना बेटा कहने से मना कर दिया है। ध्यान से सुनो ! इरशाद है:
ले पालको उनके बाप के नाम से बुलाया करो। अल्लाह के निकट यह बहुत न्याय की बात है।
मगर जिस कौम का यह उसूल कीे कि नियोग जादा अपने असल बाप(नुत्फा वाले) से कटकर बनावटी का बेटा कहलाए (सत्यार्थ प्रकाश) वह क्यों न ऐसा मशवरा दें।
 हम विगत भूमिका मे पति पत्नि के संबंधो पर विस्तार से लिख आए। देखिए किताब पृ0 44, 46 मगर महाशय विरोधी बे सोचे समझे हास्य से लिखता हैः
“आइशा अपनी गुडिया साथ लाई, तरेपन साल के नोशा भी कभी कभी अपनी इस होनहार बीवी के मासूमाना खेलों में शरीक हो जाते। तरेपन साल के बुड्ढो का बच्चों के साथ खेलना बुराई नहीं। लेकिन किसी और हैसियत में होना चाहिए। पति की हैसियत कें नही। (रंगीला, पृ0 21)
किसी किताब का हवाला नही दिया। जिससे यह साबित हों सके कि हुजूर सल्ल0 आइशा के साथ गुडिया खेला करते हैं। हम हैरान हैं के इन चालाकियों से आर्य समाज के ख्याल में विजयी होने का पुलाव पक रहा है:
इसके अलावा हम कहते है कौन अक्ली दलील इस बात में बाधक है कि पति अपनी पत्नी की तफरीह में शरीक न हो (यह जवाब घटना को मानने के बाद है) यद्दपि आर्यों और हिन्दुओं के सर्वमान्य गुरू मनू जी धर्म शास्त्र के संस्थापक राजा को इजाजत देते हैं:
“राजा खाना खाकर औरतो के साथ महल में बहार करे ।” (अध्याय 7, श्लोक 221)
महाश्य ने हजरत आइशा के बारे में दो आरोप अजीब गढे हैं:
1. इफ़क आइशा जो इस्लामी किताबों में खास कर कुरआन शरीफ में निन्दित हैं । इसकी सेहत की तरफ इशारा करके मुसलमानों के दिलो को घायल किया ।
2. सहाबा किराम के जमाने में मसला खिलाफत पर जो लडाई हुई उसमें आइशा को भी साझी बनाकर बहु पत्नि विवाह को इस्लाम का विनाश बताया है। अतएव महाशय विरोधी के असभ्य शब्द यह हैं:
“मुहम्मद सल्ल0 की बेटी फातिमा, माई खदीजा की यादगार फातिमा अली से बियाही हुई थी उधर फातिमा का पिित अपना दामाद अली, इधर चहेती बीवी आइशा हैं। मुहम्मद सल्ल0 किधर जाए, घर में गृह युध्द की बुनियाद पड गई। इस गृह युध्द ने मुहम्मद की ताकत के बाद इस्लाम की तारीख को निरंतर खून खराबे की तारीख बना दिया।” (पृ0 24)
मालूम नही महाशय जी को यह लिखते हुए कौरवों पांडवों की लडाई का नकशा सामने आ गया या हिन्दुस्तान में मुगलिया शासन के वारिसों की जंग दिखाई दी। खुदा जाने यह बहकी बहकी बातें क्यों करने लग गए, हमें तो किसी इस्लामी किताब में यह नकशा गृह युध्द का दिखाई नहीं देता। हां हम मानते हैं कि खिलाफत पर लडाई हुई। मगर उसका कारण यह न था जिसका विरोधी ने मंसूबा गढा। बल्कि सियासत में राय का मतभेद था। हां पहले नम्बर के बारे में जवाब स्वयं कुरआन मजीद में मौजूद है:
(आइशा आदि पर जो बोहतान लगाया गया वह उससे पाक हैं।)
विरोधी का आरोप अगर आरोपी पर धब्बा लगा सकता है तो तमको याद होना चाहिए कि तुम्हारे स्वामी श्रध्दानन्द पर हाल ही मे जो घोल माल व अनैतिक आदि के आरोप लगाए गए हैं क्या वे भी सही है? जिनमे से नमूना के तौर पर एक इश्तहार यह है:

श्रध्दानन्द की शर्मनाक नैतिक मौत

रूपय कमाने के लिए संन्यासी होने की हकीकत

(पब्लिक फण्डों का हिसाब पूछने पर बाजारी गालियां)

“हमने श्रध्दानन्द से अख्बार ऐशिया दिल्ली में कई कौमी फण्डों के हिसाब का मुतालबा किया था। जिसके जवाब मे उसकी तरफ से उसके तेज अख्बार मे हमे गन्दी गालियां देकर अपनी खानदानी सभ्यता का सुबूत दिया गया है और जो हिसाब दिया गया वह बडा संदिग्ध और जाली है। जिससे साफ साबित होता है कि श्रध्दानन्द ने कौमी फण्डों का बहुत सा रूपया डकार लिया है । इन जवाबात से श्रध्दानन्द की नैतिक मौत हो गई। अ बवह तंग आकर हमें कई जरिए से बदनाम कर हिा है और बपने चेलों को हमारे विरूध्द तैयार कर रहा है। लेकिन हम उसको सचेत करते हैं कि आजकल गदर का जमाना नही है अगर किसी मौके पर हमारा बाल भी बांका हुआ तो श्रध्दानन्द अपने चेलों के साथ बडे घर में  नजर आएगा। ऐसी धमकियां देकर वह कौमी फण्डों का रूपया उगलने से बच नही सकता । अब हम मजबूर होकर जनता को यह बतलाते है कि यह आदमी संन्यासी कयों हुआ? हम जो कुछ भी लिखेंगें, हर एक बात का सबूत हमारे पास मौजूद है। घटनाए यह है कि 1900 ई0 में सबसे पहले आर्य समाज काजि पार्टी वालों ने शेरे पंजाब लाला लाजपत राय जी और महात्मा हंसराज जी के नेतृत्व में इस व्यक्ति पर कौमी फण्डों के गबन करने का आरोप लगाया था। से दोनों लोग मामूली आदमी नहीं हैं। इसके बाद 1905 ई0 में कई बार प्रतिष्ठित लोगो ने आर्य प्रति मजहबी सभा पंजाब में इस श्रद्धानन्द (पूर्व मुंशी राम)पर चौदह हजार से अधिक एक रकम, हजार की दुसरी रकम गबन करने की बाबत केस दायर करके उसको एक आरोपी की हैसियत में पेश किया था और उस पर भरी अदालत में यह आरोप पत्र भी लगाया गया कि:

  • 1. यह व्यक्ति कदापि इस काबिल नही कि कोई पब्लिक फण्ड इसके हवाले किया जाए।
  • यह व्यक्ति कदापि इस काबिल नही कि इसको जिम्मेदारी का पद दिया जाए। क्योंकि मामूली मतभेद होने पर भी यह हर व्यक्ति को कष्ट पहुंचाने और झुठे आरोप लगाकर बदनाम करने से नही चूकता।
  • जब उल्लिखित गबन का केस इस पर चला तो यह उन दिनों गुरूकुल कांगडी का मुख्य अधिष्टाता था और इसके साथ एक पार्टी थी। उस समय तो यह कहकर उसने जान बचाई थी  िकवह रूप्या किसी व्यक्ति को दे रखा है। यह उन दिनों हजारों रूप्यों का कर्जदार भी था। उसका कर्जा उतारने के लिए उसकी किताबें लेकर एक आर्य कम्पनी कायम हुई थी। लेकिन कई साल के बाद जब वह गबन शुदा रूप्या वसूल न हुआ और स्वयं उसकी पार्टी भी उससे विमुख हो गई। तब उसने घबराकर अपनी पोल खुलती देखकर एक व्यक्ति से यह सलाह की कि:
  • “धर्म के काम में तो रूप्ये का हिसाब पूछा जाता है, लेकिन पालिटिकल काम में बडी इज्जत है कोई हिसाब किताब पूछता ही नहीं। इसलिए में तो संन्यासी होकर पालिटिकल काम शुरू करूंगा और तुम भी मेरे साथ रहना।”
  • अतएव पछली बेसाख 1974 संबत मे बगैर गुरू के आप से आप सर मुंडा कर और गेरू कपडे पहनकर अपना नाम श्रद्धानन्द स्वयं ही रखकर शास्त्रों के तरीकें के खिलाफ संन्यासी बन गया और रूप्या कमाने के लिए दिल्ली को तिजारती शहर देखकर उसने अडडा जमाया। जिस उपरोक्त व्यक्ति ये सलाह ली थी उसको धोखा देकर उसका लगभग चार हजार रूप्या उसने हजम किया यह धोखा बाजी देखकर वह आदमी उससे अलग हो गया। वह आदमी दिल्ली में ही रहता है। श्रद्धानन्द के इंकार करने पर हम पब्लिक को उसका नाम बताएंगे। संन्यासी होने के बाद श्रद्धानन्द ने खूब जाल फैलाया । गढवाल में अकाल पडने पर गढवाल रिलीफ फण्ड खोला उसमे उसके पास रूप्या कितना आया था और कितना रूप्या किस तरह खर्च हुआ था यह बतलाते हुए घबराता हैं। कहा गया था कि बाकी 28 हजार रूप्या बचाया था। हमनें उसका हिसाब मालूम किया तो श्रद्धानन्द ने अपने अख्बार तेज में कमीनी गालियों के साथ उसका जवाब ऐसा संदिग्ध दिलाया कि वह ऐडीटर तेज सहित जालसाजी में फंस गया। अर्थात पहले तो 28 हजार रूप्या बाकी बतलाकर उसका हिसाब बतला दिया। जब हमने ललकार कर पूछा कि श्रद्धानन्द ने अपने लडके इंदर को इस फण्ड से जो पांच हजार रूप्ये अवैध तरीके से प्रेस और अख्बार जारी करने को दिया था। वह कहां है तो झूठ बोलते हुए 13 मार्च को तेज अखबार में घबराहट में लिख डाला कि:
  • “वह पांच हजार रूप्ये प्रेस में लगा दिया था। लेकिन वह अचनती खाता में पडा हुआ है। और वह श्री मालवी जी को देना है।“ श्री मालवी जी उन दिनों दिल्ली ही में थे मगर उनको यह रूप्या नहीं दिया गया और अचनती खाता में ही पडा हुआ हजम हो जाएगा। लेकिन अब सवाल यह होता है कि तो 28 हजार कुल बाकी रूप्यो का हिसाब तेज में बतला दिया गया था, फिर यह पांच हजार कहां से निकल आया और इस तरह 23 हजार रूप्ये होता है। अतः साफ साबित होता है कि यह हिसाब जाली है और यह जालसाजी धर्म  और कानून के खिलाफ है। मानो एक फण्ड के एक ही हिसाब में हमने श्रद्धानन्द को कौमी आरोपी की हेसियत से कौम के सामने खडा कर दिया। अभी वह उस फण्ड के तमाम खर्च किया हुआ और बाकी बचे हुए का पूर्ण हिसाब पेश करे तो कई जगह ऐसी ही गडबड मिलेगी। अब हम अन्य फण्डो का जिक्र करते है:
  • 2. पालिटिकल काम छोडकर श्रद्धानन्द ने शुद्धि का काम शुरू किया । इस सिलसिले में भारतीय शुद्धि सभा आगरा से श्रद्धानन्द का 9 हजार रूप्या लेना 13 मार्च तेज अखबार में दर्ज है औार बतलाया है कि सूबा दिल्ली में इस रूप्ये से श्रद्धानन्द ने एक हजार के करीब शूद्धियां की और दिल्ली के मातहत 45 उपदेशक काम करते रहे। क्या दिल्ली का कोई आदमी बता सकता है कि 45 उपदेशक होते हुए दिल्ली के शुद्धि पर उनके कितने लैक्चर हुए और क्या एक हजार शुद्धियां सूबा दिल्ली में कहीं होती हैं? क्या श्रद्धानन्द इस 9 हजार रूप्ये के खर्च की जानकारी और 45 उपदेशकों के नाम पता सहित दे सकते हैं?
  • 3. श्रद्धानन्द नाम व पता विस्तार के साथ बतलाए कि शहर दिल्ली से उसने शुद्धि सभा के लिए किस किस से कितना रूप्या चन्दा में लिया है ओर वह कहां खर्च हुआ?
  • 4. अखबार तेज के लिए भी शुद्धि सभा से कितना रूप्या लिया है और क्यो लिया है? क्या तेज के प्रथम पृष्ठ पर अपना नाम उसकी सरपरस्ती पर लिखवाना पब्लिक को खुला धोखा देना नहीं है?
  • 5. हिन्दू संगठन के लिए श्रद्धानन्द ने दौरा किया था। उस दौरे में कितना रूप्या जमा किया है और वह रूप्या कहां है? और हिन्दू संगठन का शोर मचाने पर उसने उसका कितना काम किया है?
  • 6. श्रद्धानन्द की दलित उद्धार सभा मे विगत साल एक अखबार की खबर के मुताबिक सात आठ हजार रूप्ये आए थे। जो पिछले साल ही न मालूम कौन से अछूतों के कामों मे खर्च किए गए। नवम्बर 1923 ई0 में एक खबर प्रकाशित हुई थी कि उस रूप्ये के खर्च के कागजात श्रद्धानन्द के दामाद डाक्टर सुखदेव के दवाई खाना में जहां उस सभा का दफतर भी था, मौजूद थे। कोई चोर रात को आकर कागजात को जला गया। श्रद्धानन्द ने हमारे पूछने पर तेज मे उसका जिक्र किया हैं । मगर दलित उद्धार सभा के फण्ड का पूरा हिसाब देने का नाम तक नहीं लिया।
  • 7. श्रद्धानन्द ने शुद्धि का काम भी अपना मतलब पूरा करके छोड दिया और अछूतों का काम उल्ल्खित दलित उद्धार सभा के नाम से शुरू कर दिया और उस खाना साज सभ के लिए 25 लाख अपील करके श्रद्धानन्द ने पिछले दिनों ही काठियावाड और मुम्बई आदि कई जगह का दौरा किया था। लेकिन अब तक उसने जाहिर नहीं किया कि उन दौरों से उसको कितना रूप्या मिला। क्या उस सभा का पहला और अब तक का सब रूप्या हजम? उस सभा का प्रधान स्वयं श्रद्धानन्द है और सेक्रेट्री उसका दामाद सुखदेव है। अर्थात घर ही की सभा है। श्रद्धानन्द घर में बैठकर जब चाहता है रूप्या कमाने के लिए कोई न कोई सभा बना लेता है । कभी सभा के नाम से उसको कोई आदमी रूप्या आदि न दे।
  • 8. श्रद्धानन्द ने हाल ही में ऐलान किया है कि एक आदमी ने अछूंतो के लिए ढाई हजार रूप्या माहाना दिया है। श्रद्धानन्द यह बताइए कि यह रूप्या किससे और किस माह से मिलता है और कहां खर्च होता है?
  • 9. गौ रक्षा सब कमेटी के रूप्यो का भी विस्तृत हिसाब नहीं बतलाया और न बाकी मान्दा रूप्या हिन्दू महा सभा बनारस को भेजा गया वह गौ माता की रक्षा का रूप्या भी हजम?
  • 10. दिल्ली के एक जलसे मे 24 अक्टुबर 1923 ई0 को श्रद्धानन्द ने कहा था कि एक सभा का साढे 6 हजार रूप्या था। कुछ भिन्न भिन्न कामों मे खर्च हो गया और एक हजार बाकी है वह में हिन्दू सभा दिल्ली को दे दूंगा। इसके बाद 22 जनवरी 1924 ई0 को श्रद्धानन्द ने अपने मकान ही पर फैसला किया था। जो अखबारों में निकल चुका है हि “हिन्दू सभा का काम दिल्ली से बाहर करने के लिए इंदर ऐडीटर अर्जून और देशबन्धू ऐडीटर तेज को दौ सोे रूप्या मासिक दे दिया जाए।“ क्या इस तरह श्रद्धानन्द घर ही में वह रूप्या भी हजम करना चाहता है और वह साढे छः हजार रूप्ये किस सभा का था और श्रद्धानन्द ने कहां पर खर्च किया है?
  • 11. पंडित लक्ष्मी नारायण जी शास्त्री दिल्ली स्वर्गवासी के कई हजार रूप्ये श्रद्धानन्द ने वायदा करके शुद्धि के काम मे खर्च करा दिए थे कि यह रूप्या बाद में शुद्धि सभा से दे दिए जाएंगे। लेकिन बाद मे पंडित जी को कोरा जवाब दे दिया । पंडित जी ने शुद्धि लगन मे विश्वासघाती श्रद्धानन्द के कहने मे आकर अपनी धर्म पत्नी के जेवरात तक बेच कर लगा दिए थे। क्या पैसे के भूखे श्रद्धानन्द ने महापाप और नैतिक अपराध किया है । श्रद्धानन्द उनको अपना यही पाप छुपाने के लिए हमेशा बदनाम करता रहा है।
  • 12. श्रद्धानन्द जब संन्यासी हुआ था तो उसके पास कुछ न था। वह गरीब था, तो अर्जुन और तेज अखबारों के खर्चे और मशीन प्रेस लगाने में हजारों रूप्ये कहां से लाया? और इतने बडे बडे मकानों का किराया कहां से देता हैं? क्या उस पर प्रत्यक्ष प्रमाण का कोई जवाब है और क्या अपने वतन जालंधर में उसने मकानात तो नहीं बनवाए? अगर बनवाए हैं तो वह रूप्या कहां से आया?
  • 13. आर्य समाज का इतिहास लिखने के लिए एक और अत्याचार और शैतानियत का मठ बना रखा है जहां औरतों के जरिए से रूप्या पैदा किया जाता है उसको लिखते हुए हमारा कलम रूकता है, क्योंकि इन हालात के साथ श्रद्धानन्द के लडके इंदर की बीवी विद्यार्थी का भी जिक्र आता है।
  • 14. श्रद्धानन्द ने रूप्यो के लालच में संन्यासी होकर पालिटिकल काम शुरू किया तो सन्यासवाद व्यक्त करने पर कैद हो गया और मशहूर है कि कोई खास सन्धि करके कैद से रिहा हुआ है। यही वजह मालूम होती है कि रिहाई के बाद उसने पालिटिकल काम को हाथ तक नहीं लगाया और हिन्दू मुसलमानों और हिन्दूओं मे भी नाचाती पैदा कर रहा है। बल्कि कांग्रेस और पालिटिकल लीडरों का भी विरोध कर रहा हैं। हाल में उसने महात्मा गांधी के खिलाफ भी सख्त हमला किया है। जिनकी जूतियां उठाने के भी यह काबिल नहीें है। यह दूसरा जयचंद राठोर हिन्दू कौम और तमाम हिन्द वालो के लिए आस्तीन का सांप और बगली घूंसा है। इससे और इसके अखबारों से लोगों को बचा रहना चाहिए। अखबार वन्दे मातरम दफ्तर ने भी इसको बहुत फटकारा है। इस व्यक्ति ने कौमी फण्डों का न मालूम कितना रूप्या खाया हैं यही वजह मालूम होती है कि श्रद्धानन्द का कोई काम भी पूरा नहीं हुआ, क्योंकि रूप्या तो ज्यादा तर यह खा गया । बाकी सिर्फ दिखावा रहा। हम पब्लिक को होशियार करते हैं कि कोई आदमी गेरूए कपडों के धोखे में आकर उसको किसी काम के लिए भी रूप्या न दे वरना ऐसे लोगों को दान देने वाला आदमी भी शास्त्रों के मुताबिक पापी होता है । उसने अर्जुन और तेज दोनों अखबार दसी लिए जारी कर रखे है कि उनके द्वारा शोर व शराबा फैलाकर रूप्या पैदा किया जाए और अगर कोई आदमी श्रद्धानन्द से कौमी फण्डों का हिसाब पूछे तो ये दोनों उसको गालियां उेकर बदनाम करना शुरू कर दें। पब्लिक को इन अखबारों से भी होशियार रहना चाहिए।
नोटः हम अखबार ऐशिया में लिख चुके है कि अगर श्रद्धानन्द कुछ विशिष्ठ लीडरो को प्रस्तावित करे तो उसके असली रूप में खडा कर दिया है। अब हम देखते है कि कौम उसकोे और उसके अखबारों को किस प्रकार की कौमी सजा देती है। श्रद्धानन्द कहीं आर्य समाजी बनता है और कहीं सनातन कहकर अपना मतलब निकाल लेता है। असल मे यह कौम का खत्री और आर्य समाजी है, लेकिन अधिकता से आर्य समाती भी इससे उन हरकतों के कारण नाराज है । संन्यासी होकर भी अपने लडके, बहू और पोतों के साथ रहता है।बाहर जाकर न मालूम क्या कहता है। श्रद्धानन्द ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए अपने अखबारों तेज और अर्जुन के जरिए देश में सख्त कशमकश पैदा कर रखी है। कुछ दिन हुए इन हरकतों से तंग आकर महात्मा गांधी को ऐलान करना पडा था। तब ही से श्रद्धानन्द और उसके अखबारों ने महात्मा जी पर हमला शुरू कर दिया है। इसी तरह यह हर दो तेज और अर्जुन अखबार इस उत्पात के अलावा हिन्दू कौम में भी आपसी मतभेद को बढा रहे हैं और कौमी फण्डों में गडबडी करने और श्रद्धानन्द की अन्य हरकतों पर कौम को कमीनी धोखा बाजी मे लाकर पर्दा डाल रहे हैं। हर तरफ श्रद्धानन्द और उनके अखबारों पर सख्त नफरत जाहिर हो रही है। श्रद्धानन्द अगर सच्चा आदमी है तो हमारे इस विज्ञापन का जवाब देने से कयों धबराता है। हर आदमी का कौमी कर्तव्य है कि वह ठण्डे दिमाग से उस ज्ञापन को पढकर सोच विचार करे। मैं पंडित राज नारायण अरमान दिल्ली (ऐडटर दैनिक अखबार ऐशिया दिल्ली)
यद्यपि आइशा के आरोप का जवाब तो दसी जमाने में दिया गया। मगर इस ज्ञापन का जवाब आज तक हमने नहीं देखा। तो आइशा पर आरोप का जवाब वही है जो कुरआन मजीद में दर्ज हैं।
इस संबंध में विरोधी महाशय ने मसला बहु पत्नि विवाह का भ्ज्ञी उपहास उडाया है। उसका जवाब हम रिसाला के अन्त में देंगे। इंशाअल्लाह
महाशय लेखक को इस बात पर भी जलन है कि हजरत सिद्दीका पर जो यह झूठा आरोप लगाया गया था। कुरआन में इसका खंडन क्यों हुआ? अतएव आपने इस दुख को इन शब्दों में व्यक्त किया हैः
“सूरह नूर में रसूल और रसूल के खुदा का गम व गुस्सा अब तक लिखा चला आता है बदजबान लोगों की जबाने उनके मूंह में घुसेड दी गई, अब जरूरत हुई कि हरम की फहमाइश की जाए क्योंकि ताली दो हाथों से बजती हैं। यह सेवा भी अल्लाह तआला ने कबूल की। सूरह अहजाब उतरी।
“ऐ पैगम्बर की बीवियों तुम और औरतों की तरह नहीं हो, अगर तुम परमात्मा से डरती हो तो अपने कथन से न फिरो, ताकि वह लालच न करे। जिसके दिल में बीमारी है और कहा गया है अपने घरों में रूकी रहो और न दिखती फिरो सिंगार जैसे अज्ञानता के जमाने की औरतें करती थीं।“
“आखिर मुहम्मद का अपनी बीवियो को आप सचेत करना व डांट डपट करना बाकी पत्नियों के लवाजमात के खिलाफ था, अल्लाह तआला, पति पत्नि दोनों का बुजुर्ग है। इसको बीच मे डाला और जो चाहा कहलवा लिया।“(रंगीला 25,26)
पैगम्बर अलैहिस्सालाम का हर काम व बात और आपकी घरेलू जिंदगी उम्मत के लिए अच्छा नमूना है। इसलिए उस घरेलू घटना का जिक्र कुरआन मजीद में करके सफाई देनी जरूरी थी । मगर आर्य समाज के कथानुसार यह परमेशवर ने क्या किया कि वह अपने ऋषियों के अलावा एक पति पत्नी के कामों मं दखल देता हुआ सवाल करता है:
“ऐ बियाहे हुए मर्द औरतों ! तुम दोनो रात को कहां ठहरे थे, और दिन कहां बसर किया था, तुमने खाना कहां खाया था। आदि“(ऋग्वेद, अष्टक अध्याय, वर्ग 18, मंत्र 2) 
क्या ही बेकार और बेखबरी के सवाल हैं, तुम दोनों रात को कहां रहे थे क्या खूब ? क्या कोई शर्मीला मर्द या औरत रात को रहने का जवाब दे सकते हैं। इसी लिए इस सवाल का जवाब वेद मे मौजूद नहीं, शायद सुननं वालों ने शैख साअदी मरहूम के मशवरे पर अमल किया होगा।
जवाब जाहिलां बाशद खमूशी
इसी संबंध में महाशय ने हजरत आइशा रजि0 का एक किस्सा सर विलियम मयूर की तारीख से नकल किया है जो मामूली होने के बावजूद विरोधी इसमें गडबडी करने से नहीं चूका अतएव उसके शब्द यह हैं:
“बिमारी के दौरान मे मुहम्मद कब्रिस्तान को गया और अपने मरने का यकीन पुख्ता करके घर लौटा । आइशा भी इत्तिफाक से उस दिन दर्द सर का शिकार थी वह कराह कराह कर कह रही थी मेरा सर! मेरा सर! मुहम्मद अचानक बोल बोल उठे “आइशा! यह शब्द मुझे कहने चाहिए।“ कमसिन औरत ने सुना और चुप हो गई। मुहम्मद को मजाक सूझा, कहा ’आइशा! क्या तुम पसन्द न करोगी कि तुम्हारी मौत मेरे जीते जी हो, ताकि मे तुम्हें अपने हाथों से दफन करूं और तुम्हारी कब्र पर दुआ कहूं? आइशा ने नाक भौं चढा ली और जवाब दिया,“यह किसी और को सुनाओ में समझ गई, मेरे घर को मुझसे खाली करने और किसी और हुस्न व जमाल की पुतली को इसमें ला बसाने की आरजू हैं।“ मुहम्मद को जवाब की फुरसत न थी ताकत न थी, मुस्कुराकर टाल दिया। (हयाते मुहम्मदी लेखक मयूर साहब) (रंगीला ,पृ0 26)
रंगीले लेखक ने इसमें भी गडबडी से काम लिया हैं । असल घटना बहुत संक्षिप्त हेै जो टीकाकार अबुल फिदा के शब्दो में हम पेश करते है। 
आइशा सिददीका कहती है एक दिन मेरे सर मे दर्द था। में कह रही थी हाए मेरा सर (क्योंकि हुजर स्वयं बीमार थे) फिर (बतौर तसल्ली देने के बीवी आइशा को) कहा, तेरा क्या नुकसान है अगर तू मेरे सामने मर जाए और में तुझे कफनाऊ और जनाजा पढुं और दुआ करूं। आइशा ने (जैसे बीमारी में आदमी सडी होकर बोलता है) हां मे जानती हूं अगर मेरे साथ मौत के बाद ऐसा ही करेगें और उसी समय मेरे घर में आवेंगें ओेर अपनी किसी बीवी से दिल बहला लेगो। यह सुनकर हुजूर मुसस्कुराए।“(पहला भाग, पृ0 151)
सर विलियम सहाब ने इस स्थान पर स्वंय ही तारीख तबरी का हवाला दिया है। तारीख तबरी में यह किस्सा यूं है:
तारीख अबुल फिदा में तअज्जै-त और तबरी मे आरस-त है। दोनों के मायने हैं: मर्द का औरत से दिल बहलाना।“
कैसा साफ लेख और पति पत्नी का रोजाना दिल बहलावा है। इसी लिए सर मयूर ने भी इसी शीर्षक के तहत इस घटना को लिखा है। इस प्रकार की घटनाओं का जवाब हम भूमिका मे दे चुके है। मगर पत्नी पति के संबंध और मुहब्बत से भरपूर मनोंरजन को वही जानते है जो संबंध रखते हों। जिनकी अपनी या उनके गुरू की सारी जिंदगी इस कुदरती संबंध से बेताल्लुक रही हो, वह उस प्यार के मजाक को क्या जानें।
सिददीका के निकाह पर सबसे बडी आपत्ति उनकी कम उम्र है। अतएव विरोधी के चुभते हुए शब्द इस बारे में यह है:
“मुहम्मद ने उस कम उम्र लडकी से जो उम्र में उसकी पोती थी अपनी निस्बत क्यों ठहराई।” (पृ0 19)
अतः सारे विरोधी की जान यही आपत्ति है इसी लिए हम इसी का जवाब विस्तार से देकर इस बहस को खत्म करते हैं।
चुटकुला
हजरत खदीजा उम्रदार औरत से शादी पर भी विरोध को आपत्ति है कि इतनी उम्रदार माई से क्यों शादी की, अतएव महाशय के चुभते हुए इस बारे मे ये शब्द है:
“खदीजा विधवा थी वह भी कुरैशी अर्थात मुहम्मद की कौम से । दो पति मर चुके थे। सन्तान वाली थी। भला मुहम्मद और उसकी उम्र का क्या मुकाबला था।” (रंगीला पृ0 9)
हजरत खदीजा रजि0 के बाद जब जवान आइशा सिददीका रजि0 से शादी की तो उसकी कम उम्र पर शिकायत करते हैं।
 तो इसी चुटकुले के बाद हम असल बात पर आते है।
पति पत्नी की उम्र में क्या हिसाब हो? इसकी बाबत उलमा धर्म शास्त्र के विभिन्न कथन है, हिन्दूओं और आर्यो के सर्वमान्य पेशवा मनु जी इस बारे मे हिदायत फरमाते हैंः
“तीस साल की उम्र का लडका और बारह साल की लडकी का विवाह करे या चौबीस साल का लडका और आठ साल की लडकी विवाह करे।”(मनु स्मृति, अध्याय 9, श्लोक 94)
तो एक आदमी अपने चौबीस साला लडके की शादी किसी आठ साला लडकी से (जो वेदिक धर्म की पाबन्द हो) कर दे तो धर्म शास्त्र के विरूध न होगी। यद्यपि आजकल के अनुभव से यह बडा मुश्किल मालूम होता है कि आठ साला लडकी बालिग होकर चौबीस साला जवान को सहन कर सके। लाचार यह कहना पडेगा कि मनु जी के जमाने में आठ साल की लडकी इस तरह व्यस्क हो जाती होगी । जिस तरह आजकल बारह साल की लडकी व्यस्क हो जाती है। आठ और बारह के बीच है, दस सम्भव हैं। बीच के जमाना में जो कि इस्लाम का जमाना है। दस साला लडकी व्यस्क हो जाती हो। अतएव हजरत आइशा सिददीका रजि0 से स्वंय यह फैसला आता है कि लडकी जब नौ साल की हो जाए तो व्यस्क है। क्योंकि वह स्वयं हो गई थी। दस साला उम्र में सिददीेका का जफाफ हुआ। अतएव विरोधी ने पृ0 20 पर स्वंय लिखा है। धर्म शास्त्र आदेश से आठ साला लडकी को चौबीस साला पति मिलना जाइज बल्कि श्रेष्ठ है, तो दस साला व्यस्क को तरेपन साला पति मिलने पर क्या आपत्ति? हा आपत्ति हो सकती है तो लडकी की चढती ताकत और पति की बढती कमजोरी की हो सकती है। जिससे लडकी की इच्छा को हानि पहुंचने का अंदेशा है। हम इस आपत्ति की कदर करते है। मगर हम देखते है कि ताकत और कमजोरी के लिए उम्र का कोई कानून नहीं। बहुत से मर्द छोटी उम्र में कमजोर होते हैं और बहुत से आखिरी उम्र तक भी ताकतवर रहतें हैं। इसकी पहचान कि उस मर्द में ताकत है कि नही। बहुत आसान और रोशन दलील से यूं स्पष्ट हो सकती है कि छोटी उम्र की पत्नी और बडी उम्र के पति में निकाह के बाद अज्ञात कारण से अगर बिगाड रहता है तो समझो कि बुडढा मियां कमजोर है। और अगर दोनो में मुहब्बत और सलूक अच्छा बल्कि बहुत अच्छा है तो समझो कि बडे मियां काबिल हैं। यह एक ऐसी पहचान है कि हर एक अनुभवी खानदार इसको सही जानेगा।
अब सच्ची बात यह है कि हुजूर अलैहिस्सालाम और आइशा सिददीका के बीच कामिल मुहब्बत थी या नही। इससे महाशय विरोधी को भी इंकार नही। अतएव इसके संक्षिप्त शब्द ये है:
“मुहम्मद के मरते दम तक मुहम्मद की घर वाली दिल व जान की मालिक हमराज आइशा थी। 
दंुसरी गवाही तुम्हारे बडे भाई पंडित काली चरण की है। जो हिन्दी रिसाला “विचित्र जीवन“ लिखता है:
“आइशा भी मुहम्मद सहाब पर आशिक थी।“ (पृ0 165)
इसी बडे भाई ने मदारिजुन्नुबुव्वह के हवाले से लिखा है कि: “हुजूर अलैहिस्सालाम को तीस आदमियों के बराबर ताकत थी।“ (पृ0 147)
तो जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मर्दाना ताकत का एतिराफ स्वंय मुखालिफों को भी है तों फिर एक नोउम्र लडकी से शादी करना कौन सी अक्ली या नक्ली दलील के खिलाफ है।
चैलेंज का जवाब
पंडित काली चरण ने अपने रिसाला विचित्र जीवन के पृ0 148 पर मुसमानों को चैलेंज दिया है कि 9 साला से 53 साला मर्द के संभोग को प्राकृतिक उसूल पर सही दिखाएं। शायद उनका ख्याल है कि इतनी उम्र की लडकी अव्यस्क होती है। इसलिए आइशा सिददीका भी अव्यस्क होगी। हम उसूलन उनसे सहमत हैं, कि अव्यस्क लडकी से मिलाप सही नहीं, मगर 9,10 साला लडकी यदि अव्यस्क हो तो आठ साला कैसे व्यस्क होगी। जिसको चौबीस साला ताकतवर जवान के हवाले किया जाता है। (देखोे मनु जी का हवाला) तो अगर आठ साला लडकी का चौबीस साला जवान से मिलाप सही है तो दस साला लडकी का तरेपन साला बुढे से मिलना क्यों गलत है? खास कर इस हाल में कि दस साला लडकी व्यस्क हो तो तरेपन साला ताकतवर पीर नव जवान । 
समाजियों शीशे का घर बनाकर दूसरों पर पत्थर बरसाना।
कहो जी कौन सा धर्म है?
नोटः हजरत आइशा सिददीका रजि0 के जफाफ के बारे में कुछ उलमा (मौलाना इबराहीम साहब सियालकोटी आदि) की तहकीक यह है कि उनकी बाबत जो 9-10 साल में हुजूर के घर में आने का जिक्र आया है। उससे तात्पर्य पति से मिलाप नहीं बल्कि मात्र रूखसती है। इस दावे पर उन्होंने बहुत से हवाले शाब्दिक और किताबी पेश किए है। मतलब उनका यह है कि हुजूर की बीवी हजरत खदीजा रजि0 के इंतिकाल के बाद हजरत सौदा खानादारी की जिम्मेदार थी जो बहुत बडी बूढी और लम्बी चौडी होने की वजह से इंतिजाम नही ंकर सकती थी इसलिए नबी सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम की बहुत सी जरूरतें अधूरी रह जाती इसलिए हजरत अबूबक्र रजि0 ने आइशा को रूख्सत किया ताकि हुजूर को घरेलू कामों में तकलीफ न हो। मिलाप की उम्र वही है जो समान्यत व्यस्क लडकियों की होती हैं यह लेख उनका कुछ उलमा की पुष्टि के साथ अखबार अहले हदीस नवम्बर - दिसम्बर 1924 ई0 के अंकों में छपता रहा। तो इस तहकीक के मुकाबले में कोई आपत्ति पैदा ही नही हो सकती।


हजरत उम्मुल मोमिनीन जैनब रजियल्लाहु अन्हा 

जबां पे बारे खुदाया वह किसका नाम आया

कि मेरे नतक ने बोसे मेरी जबां के लिए

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विरोधी ने पृ0 27 से 30 तक कोई बात काबिले जवाब नहीं लिखी। पृ0 31 पर हजरत जैनब के निकाह का जिक्र किया है। मगर वही बाजारी ठटठा मखोल जिसका कोई सुबूत विश्वसनीय इस्लामी किताबों से नहीं दिया।
इसमे संदेह नही कि इस किस्से के बारे मेे समर्थकों और विरोधियों ने बहुत सी गलतियां की है । हम चाहतें है कि इस किस्से को इन गलतियों से अलग करके उसका असल चेहरा पब्लिक के सामने लाएं यद्यपि उससे पहले भी हम अपनी अनेक किताबों में जिक्र कर चुके । लेकिन आज इसको खास सूरत में पेश करतें हैं।
अरब देश में हिन्दुस्तान की तरह दस्तूर था कि औलाद न होने की सूरत में दूसरे के लडके को मुतबन्ना (ले पालक) की बीवी को सगी बहू के जैसा समझते, चंूकि यह रस्म कानूने कुदरत के खिलाफ थी। क्योंकि बाप बेटे का संबंध बीज और पेड की तरह कुदरती है जो मुतबन्ना में नहीं पाया जाता। मुतबन्ना को सगे बेटे की तरह जानना कानूने कुदरत के विपरीत खुली और बुरी रस्म है। पैगम्बरे इस्लाम जिन बुरी रस्मों का सुधार करने को आए थे। उनमें एक रस्म यह भी थी, जिसको रस्म मुतबन्ना कहतें है । चंूकि यह एक आम और मकबूल रस्म थी । इसलिए इसका सुधार भी सिर्फ जबानी वाअज व नसीहत से नहीं हो सकता था बल्कि वाअज व नसीहत के अलावा मिसाल की भी मोहताज थी । अतएव इसके सुधार के लिए दोनो तरीके अपनाए गए वाअज व नसीहत तो इन शब्दों में बयान किएः
खुदा ने तुम्हारे ले पालको को तुम्हारे बेटे नही बनाया यह तुम्हारे मुंहों की बातें है । अल्लाह सच कहता है और सीधी राह की हिदायत करता है। उनको उनके बापों के नाम से बुलाया करो। अल्लाह के निकट यह बहुत इंसाफ है। हां अगर तुम उनके बापों को न जानते हो तो समझो कि वे दीन में तुम्हारे भाई हैं (तो उनको भाई कहा करो, बहरहाल बेटा मत कहा करो) (पारा 21, रूकूअ 17)
कैसी नेचूरल शिक्षा है कि जिसको कुदरत ने नहीं जोडा, तुम उसको कुदरत की तरह मत समझो बल्कि उसके असल से उसका मिलाप जाहिर करने को उनकी असल वलदियत से बुलाया करो।
यह शाब्दिक शिक्षा इतनी बडी बुरी रस्म के लिए काफी नहीं हो सकती थी। इसलिए खुदा ने मिसाल कायम करने के लिए इसी महान सुधारक (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) को चुना। जिसका नाम कुरआनी परिभाषा पे अच्छा तरीका रखा गया है। नबी को जैद बिन हारिस से बहुत मुहब्बत थी। यहां तक कि देश की रस्म के मुताबिक (मनाही से पहले ) लोग उसको जैद पुत्र मुहम्मद कहते थे।
इस जैद (आजाद गुलाम) का निकाह भी हुजूर ने अपने करीबी रिशतेदारी मे एक बडी शरीफ लडकी जैनब से करा दिया था जो हुजूर के हाथों में पली थी। मगर सौभाग्य से पति पत्नी में स्वभाव का फर्क पैदा हुआ जिसकी इंतिहा यहां तक पहुंची कि पति ने इरादा कर लिया कि में उसे छोड दंू। चंूकि यह निकाह हुजूर अलैहिस्सलाम ने बडी कोशिश से स्वयं कराया था, इसलिए आपने जैद को बहुत समझाया । मग रवह न माना। यहां तक कि उसने जैनब को तलाक दे दी। इस सारे किस्से का सुबूत कुरआन मजीद की आयत बयियनात में मिलता हैं जो ये है ।
( ऐ पैगम्बर इस बात को याद करो कि )
जब तुम उस आदमी को समझाते थे ( जैद बिन हारिस को) जिस पर अल्लाह ने अपना अहसान किया (कि इस्लाम का सौभाग्य प्रदान किया) और तुम भी उस पर एहसान करते रहे कि अपनी बीवी (जैनब ) को अपने निकाह में रहने दे और अल्लाह से डर (उसको छोड नहीं) और तुम इस बात को अपने दिल में छुपाते थे। जिसको (आखिरकार ) अल्लाह व्यक्त करने वाला था और तुम इस मामलें में लोंगों से डरते थे और खुदा इसका ज्यादा हकदार है कि तुम उससे डरो। फिर जब जैद उस औरत से अलेहदगी कर चुका (अर्थात तलाक दे दी और इददत की मुददत पूरी हो गई) तो हमने तुम्हारे साथ उस औरत का निकाह कर दिया, ताकि (आम ) मुस्लमानों के ले पालक जब अपनी पत्नियों से बेताल्लुक हों जाए तो मुसलमानों के लिए उन औरतों के निकाह कर लेेने में किसी तंगी न रहे। और खुदा का हुक्म तो होकर ही रहेगा। (पारा 22, रूकुअ 2)
इन आयत में एक शब्द ‘जव्वजना-क-हा‘ आया है। जो विचारणीय है। इसमें सन्देंह नही कि बहुत से मुसलामान लेखको से भी इसमें कोताही हुई है कि उन्होने इस शब्द से यह समझा है कि हुजूर सल्ल0 का यह निकाह जमीन पर नहीं हुआ था, बल्कि आसमान पर हुआ था और बस।
यद्यपि असल घटना यह है कि बाकायदा निकाह हुआ। जैनब का भाई अबू अहमद उसकी तरफ से संरक्षक बनकर शरीक मज्लिस हुआ। अतएव तारीख इब्ने हिशाम के शब्द इस घटना के बारे में यह है: नबी सल्ल0 ने जैनब बिन्तें जहश के साथ निकाह किया और उसके भाई अबू अहमद ने उसकी वकालत की । नबी सल्ल0 ने जैनब को चार सौ दिरहम मेहर दिया। (पृ0 424 बरहाशिया जादुल मआद मिस्त्री)
तो घटना की इस गवाही को ध्यान मे रखकर आयत (जव्वजना-क-हा) के यह मायना हुए कि “हम (खुदा) ने तुझे (ऐ नबी) उस (जैनब) के निकाह की इजाजत दी।“ ताकि बुरी रस्म मुतबन्ना का सुधार हो सके।
कुछ रिवायतों मे आता है कि हजरत जैनब गर्व करती थी कि मेरा निकाह आसमान पर हुआ है। इसके मायना भी यही है । गर्व यह था कि खास जिक्र करके निकाह की इजाजत कुरआन के शब्दों में किसी दुसरी पत्नी को नहीं हुई। अतएव हुजूर सल्ल0 ने जैनब के निकाह का वलीमा आदि निकाह की रस्म जो अदा की उनका सुबूत अधिकता से रिवायतों मे मिलता हैं। तो हकीकत इतनी हे कि इस बुरी रस्म(मुतबन्ना औलाद होने के जैसे) को मिटाने की मन्शा से यह मिसाल कायम की गई। अतएव स्वंय कुरआन मजीद में इसकी हिक्मत इन शब्दों मे बयान की गई है।
(निकाह की इजाजत आपको) इसलिए दी गई है कि मुसलमानों पर ले पालको की पत्नियों से निकाह में कोई रूकावट न हो। जब वे ले पालक उन पत्नियों से अपना संबंध विच्छेद कर ले। 
अर्थात अगर ऐसा इत्तिफाक पैदा हो जाए तो निकाह हराम न जानें। इस हिक्मत और मस्लेहत से साफ होता है कि हर मुसलमान अपने मुतबन्ना की पत्नी से (जब वह तलाक दे दे) निकाह कर सकता है तो क्या वह मुसलमान यह कहने का पात्र है कि उस औरत ( ले पालक ) की पत्नी से मेरा निकाह आसमान पर हो चुका हैै। नहीं कदापि नही कोई मुसलमान इसका हौसला नही कर सकता  न कोई मुफती इसका फतवा दे सकता है, बल्कि यही फतवा है कि इददत के बाद बाकयदा निकाह करे।
हां हम मानते है कि कुछ टीकाओं मे यह किस्सा यंू आया है कि: “ हुजूर सल्ल0 ने जैनब को देखा तो उसकी सुंदरता की वजह से प्यारी मालूम हुई बल्कि आपके दिल में घर कर गई। जैनब ने यह जिक्र अपने पति जैद से किया तो उसने नापसन्द किया कि ऐसी औरत को में अपनी पत्नी बनाऊं। जिससे नबी सल्ल0 को मुहब्बत हो।“
हमें तस्लीम है कि यह रिवायत कुछ टीकाओं में है । मगर इसी के साथ उसका खंडन भी है। अतएव टीका खाजिन आदि में इस रिवायत के बारे में ये शब्द हैः
ऐसा कहना (कि नबी जैनब को देखकर मुहब्बत में डूब गए) इस कायल की तरफ से उसके अपरिचित होने की वजह से नबुवत पर सख्त हमला किया है। किस तरह यह कहा जा सकता है कि जैनब को देखा और आपको पसंद आई। यद्यपि वह हुजूर सल्ल0 की फुफेरी बहन थी हमेशा हुजूर उसको  देखा करते थे और औरतें नबी सल्ल0 से पर्दा नहीं करती थी (पर्दे का हुक्म जैनब के वलीमें के बाद अवतरित हुआ था) हुजूर सल्ल0 ने स्वंय उसका निकाह जैद से किया था। तो ऐसे बेहुदा आरोप से इससे कि हुजूर जैद को जैनब के रखने का हुक्म करते थे और दिल में उसकी तलाक चाहते थे हुजूर सल्ल0 के बरी होने में सन्देह नही हो सकता। यह कथन कुछ टीकाकारों से मन्कुल है। (तफसीर खाजिन प्रकाशन दूसरा भाग, पृ0 468)

पंडित काली चरण की ईमानदारी और अमानत

यह वही पंडित जी है जिनका जिक्र शुरू से आ रहा है कि उन्होंने भी हुजूर अलैहिस्सालाम की जिंदगी के हालात में एक किताब हिन्दी भाषा में लिखी है जिसका नाम है “विचित्र जीवन“ आपने वही तरीका अपनाया है जो आम तौर पर आर्य समाजी लेखक खासकर इस्लाम के खंडन में ईसाईयों के अनुयायियंों का है कि बिना देखे असल किताब के धोखा देकर सच्चे दीन इस्लाम और पैगम्बरे इस्लाम अलैहिस्सालाम से नफरत पैदा करते हैं।
आर्य समाज की शिकायत 
और किसी को और तरह की होगी । हो सकता है किसी को शुद्धि में नाजाइज कारवाई की हो। या किसी को आपत्ति में कडवी बातों की हो। लेकिन हमें जों बडी शिकायत है वह उनके अन्याय की है। जो पक्षपात पर आधारित है।
खुदा गवाह है
 में अपनी जात से कहता हूं । इस्लाम पर आपत्ति सुनने से में कभी नहीं घबराता न नाराज होता हूं। न शिकायत करता हूं, क्योंकि कुरआन मजीद को में एक बडी आला दर्जे की मुनाजरा की किताब पाता हूं जबकि वह बडे खुले दिल से विरोधियों की आपत्तिया सुनता और जवाब देता है तो फिर मुझे उनकी आपत्तियो से क्यों दुख या मलाल हो मुझे शिकायत है तो यह है कि इस्लाम विरोधी खास कर आर्य समाजी स्वामी दयानन्द का अनुसरण करते हुए असली समझने से पहले कुरआनी और हदीसी शब्दो मे अपना मफ्हूम दाखिल करके आपत्ति करने लग जाते है। विगत घटनाओं के अलावा पाठक निम्न घटनांए सुने। पंडित काली चरण अपने रिसाला “विचित्र जीवन“ में हजरत उम्मुल मोमिनीन जैनब रजि0 के निकाह की बाबत “मदारिजुन्नुबुव्वह“ और “रोजतुल अहबाब“ के हवाले से लिखते हैं:
मोहम्मद सहाब एक दिन जैनब के घर गए1 और बेटे (जैद) की बहू को ऐसे कपडों में देखा कि उसका हुस्न न छुप सका,
1. क्या ही अच्छा होता कि बजाए बेटे के मुतबन्ना या ले पालक लिखते। मगर ऐसा कहने से उनका उद्देश्य हासिल न होता और न जानने वालों को धोखा कैसे देते। अतएव आर्य समाजियों ने हिन्दी में एक टेªक्ट प्रकाशित किया। जिसका नाम ही उन्ही शब्दो में है अर्थात “बेटे की बहू से विवाह“ कितना गलत तरीका और झूठ बयान है कि ले पालको को बेटा कहा जाए खास कर कौम के सामने जो कानून कुदरत की पाबन्दी और धार्मिक शिक्षा के तहत ऐसा कहना जाइज जानती हों।(उफ रे जुल्म)
पैगम्बर साहब की तबीयत ने जोश खाया और मजे में चिल्ला उठे, सुब्हानअल्लाह मुकल्लिबुल कुबुल जैनब ने बात सुनी अनसुनी कर दी और अपने पति को यह बातई (उसके पति) जैद ने जैनब को तलाक दे दी और फिर हजरत ने उससे शादी कर ली।“ (पृ0 176)
हमने इन दोनों हवालों की तलाश पंडित जी की बताई हुई किताबों में की तो उनमे इस तरह नहीं पाया, बल्कि पंडित जी का पूरा खंडन पाया। अतएव उन किताबों की असल इबारत अनुवाद सहित पाठको की सेवा में है:
पंडित जी ने किताबों (मदारिजुन्नुबुव्व्ह और रोजतुल अहबाब ) का हवाला दिया है उनमें से पहली किताब (मदारिज) में स्वयं रोजतुल अहबाब का हवाला देकर उसकी इबारत नकल कर दी है। इसलिए हम भी रोजतुल अहबाब ही से नकल करतें हैं। लेखक रोजह लिखते हैं। 
अनुवाद
रिवायत है कि नबी सल्ल0 ने जैनब को जैद के लिए निकाह का पैगाम दिया है। जैनब ने समझा कि हुजूर सल्ल0 ने अपने लिए पैगाम दिया है इसलिए उसने पैगाम कुबूल कर लिया। मगर जब उसे मालूम हुआ कि जैद के लिए पैगाम है तो उसने इंकार कर दिया, क्योंकि जैनब बडी खूबसूरत और नबी सल्ल0 की फुफेरी बहन थी। उसकी तबीयत में जरा तेजी भी थी इसलिए उसने कहा कि हुजूर सल्ल0 में आजाद किए गए के साथ निकाह करना पसन्द नहींे करती इस इंकार में जैनब का भाई भी शरीक था।
एक रिवायत में है कि जैनब ने कहा कि यह काम आप का मनपसन्द है कि जैद मेरा पति हो? हुजूर सल्ल0 ने फरमाया हां! जैनब ने कहा, जब ऐसी बात है तो में भी अल्लाह के रसूल की अवज्ञा नहीं करती। अतः मुझे भी यह पैगाम स्वीकार है। तो हुजूर सल्ल0 ने जैनब को जैद से बियाह दिया। निकाह के बाद अल्लाह तआला ने हुजूर सल्ल0 को कश्फ द्वारा खबर दी कि हमारे ज्ञान में यह बात मुकद्दर है कि जैनब आपकी पत्नी होगी। इसके बाद निश्चित रूप से पति पत्नी (जैद व जैनब) में कुछ स्वभाव की कडवाहट पैदा हुई। यहां तक कि जैद तंग आ गया और हुजूर सल्ल0 की सेवा में हाजिर होकर बोला: 
हुजूर में इरादा कर चुका हूं कि जैनब को तलाक दे दूं, क्योकि वह मेरे साथ बहुत दुर्व्यवहार और कडवाहट का व्यवहार करती है। हुजूर ने फरमाया, अल्लाह से डर लेकिन चंूकि खुदा के इल्म में था कि जैनब हुजूर की पत्नियों में दाखिल होगी। इसलिए हुजूर के दिल मे आया कि जैद इसकेा तलाक दे दे लेकिन उसको तलाक का हुक्म देने से शर्म आती थी कि लोग कहेंगें कि अपने ले पालक बेटे की पत्नी से शादी  कर ली है। यद्यपि अरब में अज्ञानता काल मे ले पालक की पत्नी को सगी बहू की तरह जानते थे,
एक रिवायत में है:
जैद के तलाक देने के बाद जब जैनब की इद्दत पूरी हो गई तो पैगम्बर साहब ने जैद ही को जैनब के पास अपना निकाह का पैगाम देकर भेजा। खास कर जैद को इसलिए यह काम हवाले किया था कि लोगो को मालूम हो जाए कि जैनब को तलाक देना हुजूर सल्ल0 के बलपूर्वक न हुआ था। यद्यपि जैद राजी न था और मालूम हो जाए कि जैद के दिल में जैनब की मुहब्बत न रही थी। इसी वजह से वह यह काम करने पर राजी न था।
नोटः इस इबारत में जो यह जिक्र है कि हुजूर दिल में चाहते थे कि जैद तलाक दे यह कायल का अपना ख्याल है। वरना असल में सही बात जो सही करीना से मालूम होती है यह है कि हुजूर के दिल मे यह था कि मेरे ही जोर देने से जैनब ने जैद से निकाह करना मन्जूर किया था। अब जैद के तलाक देने से जो तकलीफ जैनब को होगी उसकी जिम्मेदारी मुझ पर लागू होगी । इसलिए यदि जैद तलाक देने से बाज न आया तो उसकी क्षतिपूर्ति में यूं करूंगा कि जैनब के साथ स्वयं निकाह कर लूंगा, लेकिन ऐसा करने से मुल्की रस्म रोक थी। कुरआन मजीद की आयत “व तखफी फी नफीसि-क मल्लाहु “ यही मतलब बता रही है। जो हमने बताया है। 
समाजी मि़त्रों ! इस इबारत को ध्यान से पढो ओर बताओ कि पंडित काली चरण ने जो दावा किया है कि हुजूर अलैहिस्सालाम ने जैनब को बारीक लिबास में देखा । जिससे दिल काबू में न रहा और जैनब ने जैद से इस घटना का जिक्र किया आदि आदि। इस दावे का सुबूत इस इबारत में है? अगर है तो हमे खबर दो नहीं तो पंडित जी से पुछो कि आर्य धर्म के मुताबिक झुठ बोलने और लिखने वाला किस जून में जाएगा?
हां तुम समाजी मित्रों से हम सिर्फ यह निवेदन करते है कि अपने चौथे1 उसूल केा याद करके उस पर अमल करो। वरना आलिमुल गैब खुदा के सामने जवाबदेही के लिए तैयार हो जाओ।
अजब मजा हो कि महशर में हम करे शिकवा
वह मिन्नतों से कहें चुप रहो खुदा के लिए

शोधपूर्ण बात

यह है कि जैनब को देखने या उसकी मुहब्बत दिल मे रखने और छुपाने का किस्सा न तों हुजूर सल्ल0 ने बताया है, न किसी सहाबा से रिवायत आई है यद्यपि यही वे दो जरिए सत्यता मालूम करने थे। यह रिवायत पिछलें लोगो मे से दो लोंगो से आई है । जिनके नाम है मुहम्मद बिन याहया बिन हिबान और इब्ने जैद और दोनों निचले तबके के है।जिनको असल हाल का पता नहीं मात्र अपने दिल से ऐसी बात कह दी जो स्वयं नबी से या किसी सहाबी से उन्होने नही सुनी थी, अतः मुहद्दिसीन के उसूल के तहत यह बात सनद नही हो सकती, इसीलिए उलमा मुहक्किकीन ने इसका खंडन जोरदार तरीके से लिखा है जो तफ्सीर खाजिन से उपर नकल हुई है।
संक्षिप्त
यह कि मुतबन्ना (ले पालक) की रस्म जिससे अरब वासी और हिन्द वाले असली मायना मे ले पालक को बेटा जानते थें। कानून कुदरत के बिल्कुल खिलाफ है। इसलिए दुनिया के “ महान सुधारक “ सल्ल0 से खुदा ने उसका सुधार कराया। मगर जो लोग इस रस्म से भी ज्यादा नापसन्दीदा रस्मों के कायल बल्कि पाबन्द हैं उनके स्वभाव के खिलाफ हुई। 

इस रस्म से खराब रस्म वह है जिसका नाम नियोग है। जिसकी सूरतें दो हैः

  • 1. कोई मर्द में मर्दानगी ताकत न पाएं तो अपनी स्त्री को इजाजत दे कि किसी और से बच्चा पैदा करा।
  • 2. दूसरी सूरत यह है कि कोई मर्द बे औलाद मर जाए तो उसकी विधवा औरत किसी जवान से नियोग करके औलाद पैदा करे उस औलाद की बाबत आर्यों के गुरू स्वामी दयानन्द लिखते है: “लडके वीरज दाता (वीर्य वाला बाप) के न बेटे कहलाते है न उसका गोत्र होता है और न उसका अधिकार उन लडकों पर रहता है, बल्कि वे मृत पति के बेटे कहलाते है उसका गौत्र रहता हे और उसी की जायदाद के वारिस होकर उसी घर में रहते है।“ (सत्यार्थ प्रकाश, अध्याय 4, नम्बर 111)

माशाअल्लाह क्या नेचूरल शिक्षा है । बीज किसी और का और फल किसी को!
समाजियों ! धर्म से कहना, यही शिक्षा है जिसकी बाबत तुम कहा करते हो कि जहां सांस जाएगा वेदिक झंडा वहां पहले लहराएगा।
चूुकि आर्य समाजी इस प्रकार की नापसन्दगी रस्म के पाबन्द हैं इसलिए उनको यह सख्त बुरा लगा कि रस्म मुतबन्ना का विरोध क्यों किया गया। अतएव रंगीले महाशय ने जैनब के निकाह के बारे में जो कुछ लिखा है वह देखने व सुनने योग्य है। पाठक हमारी उपरोक्त उल्लिखित तकरीर को घ्यान में रखकर रंगीला महाशय की सुनिए , जिसके शब्द ये हैं: “एक दिन मुहम्मद जैद की गैर मौजूदगी में उसके घर जा निकला । चिलमन के पीछे जैनब बैठी थी। उसने रसूल की अवाज सूनी तो जल्दी से उसे अन्दर लाने का आयोजन करने लगी, मुहम्मद की निगाह उसके सुन्दर शरीर पर पडी। दिल पर बिजली सी गिरी मुंह से निकला सुबहानअल्लाह ! तू कैसी खूबसूरती की रचना कर्त्ता है।  जैनब ने से शब्द सुन लिए और दिल ही में पैगम्बर के दिल पर काबू पा जाने की खुशियां मनाने लगी। जैद से शायद उसकी न बनती थी। लाख मुहम्मद का मुतबन्ना हो, आखिर गुलाम था और यह पूरी तरह कुरैश। जैद आया तो उससे जैनब ने उस घटना का जिक्र किया, मुहम्मद से अकीदत समझो या शायद उसका दिल पहले से ही जैनब से खट्टा हो, दौडा दौडा मुहम्मद के पास गया और अपनी पत्नी को जिस पर अब मुहम्मद का दिल आ चुका था। तलाक देने की बात व्यक्त की। मुहम्मद ने रोका और कहा आपस में खुशी खुशी गुजारा करो। लेकिन जैद को उस पत्नी का पति रहने से क्या हासिल? जो दिल दूसरे को दे चुकी है? उसने जैनब को तलाक दे ही दी। अब जैनब मुहम्मद के सर हुई कि मुझे अपनी सेवा मे लीजिए। मुहम्मद को संकोच हुआ कि बेकार मे बदनामी होगी । आखिर वह्य ने मुश्किल हल कर दी और सूरह उतरी “खुदा ने इंसानो को दो दिल नहीं दिए......न तुम्हारे गोद लिए बेटे अपने बना दिए है, जो तुम कहते हो। यह तुम्हारे मुंह से निकलता है। मगर अल्लाह हकीकत से अवगत है वह सीधी राह दिखाता है। तुम्हारे ले पालकों को चाहिए कि वे अपने बाप के नाम से मशहूर हों और जब तूने एक ऐसे बन्दे से जिस पर अल्लाह की कृपा भी है और तेरी कृपा है कहा कि तू अपनी पत्नी अपने पास रख और अल्लाह का भय कर और तूने अपनी छाती में छुपाया, जो अल्लाह की मर्जी थी कि प्रकट हो और तू इंसान से डरा, यद्यपि अल्लाह ज्यादा काबिल है डरने के, और जब जैद ने तलाक की रस्म पूरी कर दी, हमने तुझे उससे बियाह दिया ताकि मोमिनों को उसके अपने ले पालकों की पत्नियों से शादी करना बुरा न हो, बशर्ते कि उनकी तलाक की रस्म पूरी हो चुकी हो। और अल्लाह का हुक्म जरूर पूरा होगा, मुहम्मद तुममें से किसी का बाप नहीं। वह अल्लाह का रसूल है और खातिमुल मुरसलीन है और अल्लाह सब कुछ जानता है।“(सूरह अहबाब, रूकूअ 5)
ये शब्द हमने इसलिए नकल किए कि मुहम्मद के दिल की हालत का पता पाठक को लग सके। जैनब की जियारत के बाद मुहम्म्ब ने झूठ मूठ का संकोच प्रकट किया वरना दिल में इश्क की आग अपना असर कर चुकी थी और दम बदम भडक रही थी। वह्य होती गई और मुहम्म्द ने तुरन्त जैनब के पास पैगाम भेजा, कि परमात्मा ने तुझे मुझसे मिला दिया। फिर तो निकाह की जरूरत न रही। जहां अल्लाह दिल मिला दे वहां काजियो और निकाह का बीच में पडना उस पाक निकाह का मखोल नहीं तो और क्या है? लोगों की तसल्ली करना जरूरी था। तो कह दिया , अल्लाह ने निकाह पढाया है और जिबरील गवाह हैं औा इन दो शर्तो के अलावा निकाह की और शर्त भी क्या है?
“रंगीले रसूल का यह रंग बडा अजीब है, बेटा बेटा न रहा। बहू बहू न रही।“ (पृ0 21 -34)

जवाब

विरोधी की इस सारी तकरीर का जवाब हम पहले ही दे चुके हैं पाठक ध्यान से देखे और उसका अपना स्वीकार करना दोबारा पढें जो यह है:
“आर्ये शास्त्रों में खानदारी की अवघि पच्चीस साल निर्धारित है। यह अवधि मुहम्मद ने बडी पाकीजगी से बसर की इसलिए हमउ से आर्य खानदार कह सकते हैं।“ (पृ0 15)
समाजी सज्जनों ! इंसाफ करो जो आदमी पचास साल की उम्र तक ऐसा पाकीजा आचरण का रहा हो जिसकी पाकीजगी पर तुम भी गर्व करो तो वही (तुम्हारा आर्य खानदार ) पचास से उपर 58 सालों की उम्र को पहुंचे तो नफ्सानी भावना से वशीभूत हो जाए?

असल बात

वही है जो हमने बताई है कि देश में एक बुरी रस्म कानूने कुदरत की मन्शा के विरूद्ध जारी थी। अर्थात दूसरे के बेटे को अपना बेटा बनाने और कहने की इस बुरी रस्म के सुधार के लिए खुदा ने अपने नबी को नमूना बनाया। चूुकि आर्यों में भी वही बल्कि उससे भी बुरी रस्म मौजूद है । इसलिए वह इस निकाह पर आपत्ति करतें हैं और हुजूर अलैहिस्सालाम की शान में तरह तरह की गुस्ताखी के शब्द जबान ओर कलम से निकालते हैं। यद्यपि बात असल यह है कि:
उन्होंने खुद गर्ज शक्लें कभी देखी नहीें शायद
वे जब आईना देखेंगें तो हम उनको बता देंगे

विचार योग्य बात

हजरत जैनब के निकाह में बहस योग्य बात सिर्फ एक है वह यह कि मुंह बोला बेटा कुदरती बेटा हो सकता है? मुसलमान उसके इन्कारी हैं। उनका बयान है कि बेटे बाप का ताल्लुक कुदरती है। इसीलिए बच्चा बाप का बेटा तो कहलाता है । मगर चचा का बेटा नहीं कहलाता। न बेटे की तरह चचा का वारिस होता है इसके विपरीत आर्य और अन्य इस्लाम विरोधी कानूने कुदरत के विरूद्ध उसको बेटे की तरह जानते हैं। दिल में नही ंतो इस्लाम के मुकाबले में मात्र विरोध व्यक्त करने को ऐसा करते हैं।इसलिए न्यायी लोगों के सामने हम इस समस्या को पेश करके मालूम करते हैं कि कही ऐसा हुआ है कि बनावटी गुलाब कुदरती गुलाब की तरह आनन्द देने वाला हो सके? अगर नही ंतो रंगीले महाशय का यह कहना कैसा धोखा बल्कि फरेब है कि “ बेटा बेटा न रहा, बहु बहु न रही।“
हां यू कहना चाहिए था कि कुदरती और बनावटी बेटे और असली और नकली बहू में फर्क हो गया। क्या सच है:
बस हो रहेगा इश्क हवस मे भी इम्तियाज
आया अब मिजाज तेरा इम्तिहान पर!!

आरोप नए रंग में


(हजरत रीहाना रजियल्लाहु अन्हा)

रंगीले महाशय की पक्की आदत है कि अपने दिली विचारों को घटनाओं की शक्ल में पेश करता है जो एक ईमानदार लेखक से बहुत दूर है। हमने उसके रिसाले मे कई जगह ऐसा देखा अर्थात निम्न शब्द इसके प्रकार के है । लिखता है: 
“हिजरत के बाद मुहम्मद को यहुदियों से तरह तरह की उम्मीदें थी। उसने उनसे दोस्ती का रिश्ता गांठा। उनके मजहब की प्रशंसा की और अपने मजहब की प्रशंसा की , और अपने मजहब की सच्चाई का सर्टिफिकेट भी उन्ही से हासिल किया। बाद में जब उसके अनुयायियेां की संख्या बढ गई तो वह यहूद मुहम्मद के लिए दुश्मनी का कारण हुए। कांटा बनकर उसकी आंखो मे खटकने लगे। एक दिन आया जब उनका घेराव किया गया और ज बवे क्षमा के तलबगार हुए तो फेेसला हुआ कि उन्हें कत्ल कर दिया जाए। सैकडों यहूदी आन की आन मे तलवार के घाट उतार गए एक औरत को भी उसकी अपनी विनती पर कत्ल किया गया।“(पृ0 37)
पाठको ! इतने बडे दिल दुखाने वाले और अपमान जनक दिल तोडने वाले दावे का हवाला किसी विश्वसनीय इस्लामी तारीख से नही दिया। इसलिए इसका असल जवाब वही था जो उनके गुरू स्वामी दयानन्द और एशिया के उस्ताद अख्लाक शैख साअदी मरहुम ने लिखा है कि:
जवाब जाहिलां बाशद खमूशी
लेकिन हम इसी जवाब पर बस नहीं करते बल्कि इसको खोलकर बताते है:
पैगम्बर इस्लाम अलैहिस्सालाम ने यहूदियों के मजहब की कभी प्रशंसा नहीं की । न कुरआन में न हदीस में न उनसे कोई भलाई की उम्मीउ रखी बल्कि कुरआन मजीद में साफ ऐलान है कि यहूदी मुसलमानेां के सख्त तरीन दुश्मन हैं। ध्यान से पढिए:
(अनुवाद ): तुम यहूद और मुश्रिकीन को मुसलमान के हक में सख्त तरीन दुश्मन पाओगे। यह महाशय का पहला झूठ ।
हां आर्यो के गुरू स्वामी दयानन्द ने ऐसा काम किया था कि पहले सत्यार्थ प्रकाश में हिन्दुओं को गांठने के लिए उनकी रस्म श्राद्ध आदि को जाइज बताया देखिए सत्यार्थ प्रकाश 1875 ई0 इसके बाद जब आर्यों की संख्या कुछ नजर आने लगी तो उस रस्म का बडा भारी खंडन कर दिया। शायद महाशय को शीशे में अपना चेहरा नजर आया होगा। 
 घेराव की हकीकत यह है कि हुजूर अलैहिस्सालाम जब मदीना तयियबा तशरीफ ले गए तो मदीना के यहूदियों से आपसी सहयोग की सन्धि हुई थी। हिजरत के चौथे साल मशहूर जंगे खन्दक के मौके पर मुशिरकीन मक्का ने जब मुसलमानो पर चढाई की तो मदीने के यहूदियों की दोनो कौमें वचन तोडकर उनसे मिल गई। अतएव उसके बारे में टीकाकार ने इब्ने खुलदून के शब्द यह हैः यहूद बनी कुरैज नबी सल्ल0 की सन्धि के पाबन्द थे उनके पास एक कबीला आया उसने उनको बहकाया तो उन्होंने वायदा तोड दिया। और विरोंधियों की जमाअत में मिल गए। ( बकिया दूसरा भाग पृ0 29)
टीकाकार अबुल फिदा के यह शब्द है: कबीला बनू कूरैजा ने हुजूर सल्ल0 के साथ सन्धि कर कर रखी थी। फिर उन्होने सन्धि का उल्ल्ंाघन किया और (जंग अहबाब में) दुश्मन जमाअतों के साथ मिल गए।
इस गद्दारी और वचन तोंडने और मुखालिफाना जंग की सजा में हुजूर अलैहिस्सालाम ने उन लोंगों का घेराव किया और स्वयं उनकी प्रार्थना से साअद बिन मुआज जज मुकर्रर हुए। जिन्होने फैसला दिया कि उन लोंगो में जो लडने के काबिल है वे कत्ल किए जाएं और औरतों व बच्चों केा लौंडी गुलाम बनाया जाए। जिस औरत के कत्ल का जिक्र महाशय ने किया है उसका नाम बनाना था अपराध उसका यह था कि उसने खल्लाद बिन सुवैद सहाबी पर मकान पर से चक्की का पाट दे मारा था। जिससे वह मर गया था। उसकी ख्वाहिश पर उसको कत्ल नहीं किया बल्कि खून के बदले में कत्ल हुई। 
हां रीहाना रजि0 की बाबत महाशय को बहुत रहम आया है। मगर अफसोस कि उसकी असलियत भी छुपाकर । इसमें शक नहीं  कि वह एक प्रतिष्ठित खानदान की लडकी थी। हुजूर सल्ल0 के हिस्से खास में लौडी होकर आई थी। हुजूर सल्ल0 ने उसकी इज्जत अफजाई करने केा फरमाया, मैं तुझे आजाद करके निकाह करना चाहता हूु। उसने कहा, मैं हुजूर सल्ल0 की लौंडी रहना पसन्द करती हूु। अतएव वह लौंडी ही रही।( तारीख इब्ने असीर कामिल भाग 2, पृ0 89)
पाठको! यह है वह घटना जो विरोधी ने बिल्कुल उलट कर अपने मतलब की बनाकर पेश की ताकि स्वामी दयानन्द के कथन की पुष्टि हो कि:
“मजहब के पक्षपात में फसें हुए अक्ल को खराब करने वाले व्यक्ति के खिलाफ बात की मंशा के मायना किया करते हैं।“ (दीबाचा सत्यार्थ प्रकाश, पृ0 7)
हां यह खुब कहा कि यहुदियों से सर्टिफिकेट लिया, मेहरबानी करके उस सर्टिफिकेट की इबारत तो जरा नकल की होती।
समाजियों ! झूठ बोलना , झूठ फैलाकर देश में उत्पात मचाना कहो जी कौन सा धर्म है?
आगे चलिए: महाशय जी लिखते है:
“बनी मुसतलिक की मुहिम मे अन्य माल व सामान के साथ जुवैरिया नामी एक यहूदी औरत हाथ आई। उसकी कीमत उसके विजेता ने ज्यादा लगाई और मुहम्मद के पास फरियादी बनकर गई। मुहम्मद ने कीमत घटाने की बजाए वह पहली कीमत स्वयं अदा कर दी और उसे अपने निकाह में कबूल कर लिया।“ (पृ0 38)
इस घटना की असलियत भी महाशय ने छुपा रखी या उसे स्वयं खबर नहीं । असल यह है कि आज कल के जितने महाशय लेखक इस्लाम के विरूध लिखतें है उनका प्रत्यक्ष ज्ञान पंडित लेखाराम और ईसाई पादरियों की किताबों तवारीख मुहम्मदी , तक्जीब बुराहीन अहमदिया आदि हैं। इसलिए ये बेचारे स्वयं भी गुमराह हुए है और अपनी कौम और पाठकों को भी गुमराह करते हैः अगर इस घटना कि सही जानकारी होती, इसी के साथ उसके साथ इंसाफ भी होता तो हुजूर अलैहिस्सालाम की गरीब परवरी की दाद देते।
सुनिए! असल किस्सा तों यूं है कि बनी मुसतलिक की लडाई में जुवैरिया कैद होकर आई जो साबित बिन कैस के हिस्से में आई उसने उससे किताबत की । किताबत की रकम अदा करने में मदद मांगने को हुजूर सल्ल0 की सेवा में आई चूुकि वह दुश्मन के सेनापति की बेटी थी। इसलिए हुजूर सल्ल0 ने फरमाया , किताबत में मदद देने से भी अच्छी बात तुमको बताऊ? उसने अर्ज किया, इरशाद । फरमाया , में तुझसे निकाह कर लूं ? उसने बडी खुशी से हां कर ली। हुजूर सल्ल0 ने जब उससे निकाह किया तो मुसलमान फौज में यह खबर बिजली  की तरह फैल गई। फौज ने कहा:
हैं? बनी मुसतलिक से हुजूर सल्ल0 ने सुसराल का रिश्ता कर लिया तो हम उनके कैदियों को लौडी गुलाम बनाकर रखें? अतएव उस निकाहे नबवी का असर जो हुआ वह टीकाकार अबुल फिदा के शब्दों में दर्ज हैं: “अर्थात हुजूर अलैहिस्सालाम ने जुवैवरिया की तरफ से उसकी रकम किताबत अदा की और उससे निकाह कर लिया। सहाबा ने कहा, अब तो ये लोग हुजूर के सुसराली बन गए। तो हुजूर सल्ल0 के इस निकाह करने से बनी मुसतलिक के एक सौ घराने जो मुसलमानों के गुलाम बन चुके थे आजाद हो गए तो यह औरत जैवरिया अपनी कौम के हक में बडी बरकत वाली साबित हुई।
पाठकों ! क्या यह किस्सा हुजूर की कमाल मेहरबानी का सुबूत है या बे मुरव्वती का।

हजरत उम्मुल मोमिनीन सफिया   (रजियल्लाहु तआला अन्हा)

महाशय विरोधी ने हजरत सफिया की बाबत लिखा है: 
“खैबर भी यहूदियों की एक बस्ती थी उस पर मुहम्मद ने छापा मारा और फतह कर लिया उस बस्ती का सरदार कनआन मारा गया और उसकी पत्नी हाथ आई। मुहम्मद ने उससे भी निकाह की इच्छा व्यक्त की । वह राजी हो गई। अब मदीने वापस जाने तक की ताब किसे? मिटटी के ढेर लगा लगाकर दस्तरख्वान बनाए गए और उन पर खजूरों , मक्खन और दही की दावत की गई। नई दुल्हन को संवारा गया और मुहम्मद उसे एकान्त में ले गए। अकीदतमंदों ने एहतियातन रसूल के खेमों का पहरा दिया कि कहीं अधर्मी औरत पति के कत्ल का बदला न चुकाए मगर यह सावधानी गैर जरूरी साबित हुई।“ (पृ0 38)
अपनी मामूली आदत से महाशय ने असल घटना को छुपाकर बल्कि तोड मरोडकर प्रस्तंुत किया है कमाल है साहस यह है कि आदत के अनुसार हवाला किसी किताब का नहीं दियां हम असलियत बतातें है और विश्वसनीय टीकाकार “ इब्ने खुलदुन “ के शब्द सामने रखते है। 
असल घटना यह है कि खैबर की जंग में उनके सरदार कनआन की पत्नी सफिया लौंडी होकर मुसलमानों के कब्जे में आई जो एक सहाबी के हाथ पहुंची। रिर्पोट हुई कि हुजूर सल्ल0 वह बडे सरदार की पत्नी है। हुजूर ने उससे उसे खरीद कर आजाद फरमाया। जब उसकी इददत पूरी हो गई तो उसकी मर्जी से उसका मान बढाने को आपने निकाह कर लिया। टीकाकार इब्ने खुलदुन के शब्द इस बारे में यें हैः
बहुत से कैदी आए उनमें एक सफिया थी जो कनआन की पत्नी थी। बस वह हुजूर ने वहबिया सहाबी को प्रदान कर दी फिर उसको उससे खरीद लिया और उसको बीवी उम्मे सलमा के पास रखा। यहां तक कि उसकी इद्दत पूरी हो गई। फिर हुजूर सल्ल0 ने उसे आजाद फरमाया और निकाह किया। (पृ0 39 ततिम्मा दूसरा हिस्सा)
अल्लाह रे किस कदर मान बढाना है एक औरत का जो हस्बे कानून जंग में लौडी बनकर मामूली सिपाही के हिस्से में आए ओर हिन्दू धर्म शा़स्त्र के आदेशानुसार उस सिपाही के पास रहने पर मजबूर हो। उसको कौन समझाए जिनको खुदा का भय न हों। अकीदत मंदों के पहरा देने और पति के कत्ल का बदला लेने और पेशानी पर घाव आदि का सुबूत विरोधी के जिम्मे हैं। जिसकी बाबत उम्मीद नहीं  कि वह उस फर्ज से फारिग हो सके।

हजरत उम्मुल मोमिनीन उम्मे हबीबा    (रजियल्लाहू तआला अन्हा)

इस संबंध मे रगीले महाशय ने चलते चलते उम्मे हबीबा के निकाह का भी जिक्र किया। मगर आदत के अनुसार पोशीदगी से काम लिया है। अतएव उसके शब्द यह है:
“खैबर से मदीना वापस आए, फिर मुहम्मद ने अबू सुफियान की लडकी उम्मे हबीबा को पत्नी का गौरव बख्शा। उस निकाह की कार्रवाई हबशा मे स्वयं शाह हबशा की तरफ से हुई थी।“ (पृ0 39)
जवाब: इस निकाह की हिक्मत तो स्वयं लडकी के बाप के शब्दो में मिलती है। महाशय क्या जाने भला, उसे तो आपत्ति करने से मतलब है।
सुनिए! काफिर विरोधी अरब में अबू सुफियान एक बडा सरदार था। वही जंग खन्दक में फौज का सरदार बनकर आया था । यह उम्मे हबीबा उसकी लडकी थी जो अपने पति के साथ हबशा में गई थी। उसका पति वहां मर गयां वहां के बादशाह ने हुजूर अलैहिस्सालाम के साथ उसका निकाह कर दिया। उस निकाह की खबर सुनकर अबू सुफियान के मूहं से आप से आप निकला:
“इस बहादुर (नबी) को कहीं भी नाकामी नसीब नहीं हुई ।“(तारीख कामिल इब्ने असीर प्रकाशन मिस्त्र , तीसरा भाग, पृ0 103)
अबू सुफियान का यह एक वाक्य हुजूर की आइंदा सियासी और मजहबी कामयाबियों के लिए भविष्यवाणी थी जो बिल्कुल पूरी हुई।

हजरत उम्मुल मोमिनीन मैमूना (रजियल्लाहु तआला अन्हा)

रंगीले महाशय ने चलते चलते हजरत मैमूना के निकाह का भी जिक्र किया है जिसमें कोई खास बात आपत्ति जनक नहीं बताई । अतएव उसके शब्द यह है:
“मैमूना नाम से उसके चचा अब्बास की विधवा बहु मौजूद थी । उसकी उम्र 26 साल की थी और वह रिश्तें में भी मुहम्मद के नजदीक की थी इसलिए अपने चचा के कहने सुनने पर मुहम्मद ने उसे अपने हरम में ले लिया। मदीना की मस्जिद में जहां पहले 9 हुजरे थे अब दसवां तैयार हुआ।“ (पृ0 40)
हां मालूम होता है
कि महाशय के जेहन में मसला बहु पत्नी विवाह का गलत होना बैठा हुआ है। इसलिए सारी कार्रवाई इस आधार पर किए जाता है। अतः हम भी इस मसले का अन्त में जिक्र करेंगें । इंशाअल्लाह ।
हजरत मारिया रजियल्लाहु अन्हा
मारिया हुजूर अलैहिस्सालाम की लौडी (बांदी) थी पत्नियों के अलावा बांदियां रखने पर महाशय को आपत्ति है। अतएव उसके चुभते हुए शब्द यह है:
“मारिया के बारे में मुहम्मद पर एक आरोप लगाया जाता है। लौडियां रखना कुरआन करीम की रू से जाइज है, मुहम्मद के घर में लौंडियां थी। उन पर न मुहम्मद की पत्नियों ने आपत्ति की न मुहम्मद के अनुयायियों ने।“
जवाब
बेशक आपने सच कहा कुरआन की रू से जाइज और उस जमाने के कानून की रू से जाइज । हां एक शब्द आप छोड गए वह यह कि धर्म शास्त्र की रू से भी जाइज है। विश्वास न हो तो सुनो, वेदों के बडे उस्ताद वेदिक धर्म के सर्व मान्य ऋषि मनु जी फरमातें हैं:
“रथ घोडा, चार पाया, औरत आदि इन सब को जो फतह करे वही उसका मालिक होता है।“ (अध्याय 7, वाक्य 96)
गुलामों को यहा तक महत्वहीन किया गया है कि उनकी कमाई पर भी उनको अधिकार नहीं । सुनों!
“अपनी औरत के लडके व गुलाम यह सब जिस दौलत को जमा करें वह सब दौलत उनके मालिक की है। यह उसके हकदार मालिक की जिंदगी में नहीं।“
और सुनों!
“राजा ब्रहम्मण , गुलाम और शुद्र से दौलत ले लेवे और उसमें कुछ संकोच न करे क्योंकि वह दौलत कुछ उसकी मिल्कियत नहीं, वह धनहीन है।“ (मनु स्मृति, अध्याय 8, वाक्य 416-417)
तो जो काम कुरआन की रू से जो काम शास्त्र की रू से जाइज हो उस पर आपत्ति करना नास्तिक का काम है, किसी आस्तिक का नहीं।
महाशय की अनभिज्ञता 
हम तो शुरू से कहते आए हैं कि रंगीला रिसाला की लेखक पार्टी इस्लामी तारीख से प्रत्यक्ष में अवगत नहीं। उनकी जानकारी का माध्यम इस्लाम दुश्मनों की किताबों तवारीख मुहम्मदी, तक्जीब बुराहीन, तारीख विलियम मयूर आदि है। इसका सबूत स्वयं उन्हीे के कलम से यहां हूम देते हैं। लिखते हैंः
“एक बार कहीं से तीन लौंडियां आई तो मुहम्मद ने वे एक एक करके अपने खुसरों अबुबक्र और उसमान और अपने दामाद अली को प्रदान कर दीं। आज दुनिया इसे शर्मनाक ढिठाई कहेगी कि अपने दामाद और खुसरों के साथ यह याराने मज्लिस का सा सुलूक।“ (पृ0 41)
इस पृष्ठ पर और इसके अलावा पृ0 44 पर भी हजरत उसमान को हुजूर के खुसरो में शुमार किया है, यद्यपि तारीख इस्लाम में हजरत उसमान हुजूर के दामाद तो है खुसर नहीं।
समाजियों! इंसाफ से कहना अपने चौथे उसूल को सामने रखकर कहना इस दावे के सुबूत में (कि हुजूर ने अबूबक्र और उसमान को लौंडियां दी ) तुम्हारे रंगीले महाशय ने कोई हवाला दिया?
बताओं: अगर तुम किसी मजलिस की गुफ्तुगुं मे पेश करो और मुसलमान तुमसे सुबुत मांगें और तुम न प्रस्तुत कर सको तो तुम्हें कितनी नदामत होगी।
कोई महाशय बुर्जुग औलाद की प्राप्ती के लिए स्वामी जी के हुक्म से अपनी स्त्री का किसी जवान आदमी से नियोग कराए वह बेचारी साल दो साल ता उस जवान की सेवा में रहे। मगर परमात्मा के हुक्म से औलाद न हो तो वह बेचारा किस कदर शर्मिन्दा होंगें।
सच कहना तुम विरोधी के सामने सबूत पेश न करने पर उससे ज्यादा शर्मिन्दा होंगें या नहीं? फिर क्यों ऐसे लेखकों को तुम लोग मजबूर नहीं करते कि हर दावे का सुबूत दिया करें। 
लो हम मान लेते हैं कि हुजूर ने अपने खुसरों को लौंडियां दी तो क्या अपराध किया तुम समझते हों कि लौंडिया से सिर्फ पत्नी का काम लिया जाता है। यद्यपि लौंडी घर की सेविका  भी होती है। अच्छा सुनो मनु जी ने जो कहा कि लूट में औरत को जो लूटे राजा उसी को दे दे। भला लूटने वाला कोई राजा खुसर हो या दामाद बल्कि बाप भी हो तो उसे भी औरत दे दे। हे राम ! इतना पाप?
आर्य सज्जनों
संभल के रखना कदम दश्ते खार में मजनूं
कि इस नवाह मे सौदा बरहना पा भी है

रंगीले रसूल का नया रंग

किस्सा तहरीम

आगे चलिए! रंगीले महाशय ने नया रंग निकाला है। लिखते हैंः
“हदीस की रिवायत यह है कि एक दिन जब हफसा की बारी थी हफसा मुहम्मद से छुट्टी लेकर मैके चली गई और उसके घर को मुहम्मद ने मारिया से बसा लिया इतने में हफसा आ गई वह देखकर जल भुन गई कि उसकी आरामगाह आज एक गैर लौडी की ख्वाबगाह बनी हुई है। इस गुस्से को मुहम्मद ताड गया। और कहा भागवान अगर मारिया की इस घटना का जिक्र किसी से न करो तों  मैने यह वायदा किया कि आइंदा मारिया से मुबाशरत त होगी और मेरे बाद खिलाफत का हक तुम्हारे बाप का होगा।“ (पृ0 43)
बेशक कुरआन मजीद में यह आयत है:
अनुवाद: “ऐ नबी जो खुदा ने तुम्हारे लिए हलाल किया है तुम उसको हराम क्यों करते हो क्या पत्नियों को राजी करने के लिए ऐसा करते है।“
इस आयत के बारे में अनेक रिवायतें आई  हैं कि कोैन सी चीज हुजूर ने अपने हक में हराम की थी, जिसका जिक्र इस आयत में नापसंदगी के तौर पर आया है एक रिवायत है कि मारिया लौंडी को हराम कर दिया था। दूसरी और भी हे मगर ज्यादा सहीह यह है कि हुजूर शहद का शरबत पिया करते थे, किसी ने गलत कह दिया कि आपके मुंह से मोम की गंध आती है । आपको बदबू से सख्त नफरत थी। आपने फरमाया , में शहद कभी न पियुूुगाा। इसमें शक नहीं कि ऐसा कहने वाली पत्नियां थीं। यह रिवायत सहीह हे। अतएव उच्च कोटि के मुहद्दिस टीकाकार हाफिज इब्ने बशीर फरमाते है: 
सहीह बात यह है कि आयत शहद पीने पर उतरी है।जैसा कि ईमाम बुखारी ने रिवायत किया है। बस असल जवाब तो आ गया है। रहा यह सवाल कि जिन पत्नियों ने ऐसी गलत बात की उनकी बाबत क्या सजा। जवाब यह है कि वही सजा जो कुरआन मजीद मे मौजूद है:
(तुम्हारे दिल बिगड चुके हैं तौबा करोगी तो तुम्हारे हक में बेहतर होगा बेशक जो करे वह भरे।)
महाशय का इससे आगे का नोट इससे भी ज्यादा धोखा देने वाला है जो किसी किस्से मारिया की घटना को कारण मानकर लिखा है।
“बात थी टल गई। लेकिन हफसा से अपने पर काबू न रखा जा सका । उसने इस घटना का आइशा से जिक्र किया । वह स्वाभिमान औरत थी अतः आइशा के तत्वाधान में मुहम्म्द की पत्नियों की एक मींटिग हुई । सब ने मुहम्मद से मुंह फेर लिया, मुहम्मद पैगम्बर मदीना का सर्व मान्य बादशाह ! ये पत्नियां कौन हैं जो उससे रूखाई का बर्ताव करें। तुरन्त वह्य अवतरित हुई और उन अवज्ञाकारी पत्नियों का बायकाट कर दिया। महीना भर मारिया के डेरा लगा दिया, कि बिगाड लो, जो बिगाड सको। इधर अबूबक्र नाराज, उसमान नाराज कि लौंडी की खातिर हमारी बेटियों से ताल्लुक छोड रखा है । महीना भर की जुदाई के बाद मुहम्मद का दिल भी मुलायम हुआ, कहा अल्लाह ने सिफारिश की है हफसा की गलती माफ और उसके साथ उसकी सब बहनों की गलती माफ।“
जवाब
आह! स्वामी दयानन्द होते तो महाशय की दाद देते कि सारे हिन्दुस्तान में हमारी शिक्षा से यही एक लायक निकला है जो हमारे मिशन (इस्लाम से नफरत दिलाने ) को पुरा करने वाला है।
सुनिए! असल किस्सा यंू नही, जो तुमने लिखा है । बल्कि बात यह है कि इधर शहद की घटना घटी। इत्तिफाक से उन्ही दिनों हुजूर अलैहिस्सालाम के पैर में चोट लग आई जिससे आप चलने फिरने से रूक गए। मगर आपके एकान्त वास होने से लोगों में मशहूर हो गया कि हुजूर ने पत्नियों को तलाक दे दी। इस पर हजरत उमर आए और मालूम किया तो पता चला कि असल वजह हुजूर की बीमारी है। तुमने तों आर्येा को गुमराह करने की ठान रखी है। इसलिए किसी किताब का हवाला नहीं देते। मगर हम हवाला दिए बिना नहीं रह नहीं सकते। तो सुनो!
हजरत सल्ल0 के ससूर हजरत उमर कहतें हैं कि मेरे पास मेरा एक दोस्त आया उसने कहा:
“हुजूर ने औरतों को तलाक दे दी है। “
ये सुनकर में बहुत घबराया हुआ सही जानकारी के लिए निकला तो हुजूर को चोबारे में अकेला पाया। क्योंकि आपके पांव मे चोट आई थी जिसके बारे में सहीह बुखरी के शब्द है:
“हुजूर ने पत्नियों से अलेहदगी की । आप सल्ल0 के पैर में घाव था। तो आप सल्ल0 चोबारे मे उन्तीस दिन अलेहदा ठहरे रहे।
समाजी मित्रों ! अपने चौथे उसूल पर तुमको अगर पक्का यकीन है तो रंगीले महाशय और उसकी कम्पनी से इस दावे का सुबूत हमको लेकर दो कि:
“इधर अबुबक्र नाराज, उमर नाराज उस्मान नाराज कि एक लौंडी की खातिर हमारी बेटियों को छोड रखा है।“(रंगीला पृ0 43)
अगर वे इसका सुबूत न दे सकें और हम कहते है कि निश्चय ही न देगा तो क्या फिर तुम्हारा फर्ज नहीं ? कि जिस तरह तुमने गांधी जी के खिालाफ प्रस्तांवों की भरमार की है ऐसे हानिकारक , समाज को बदनाम करने वाले लेखकों के विरू़द्ध भी प्रस्ताव पास कर दो, याद रखो कि अगर ऐसा न करोगे , तो तुम्हारी सारी समाज में बदनामी हो जाएगी। जैसी कि हो रही है। क्यों?

बहु पत्नी विवाह

मुहम्मद पत्नियों वाला

मरहबा सययदे मक्की मदनी अरबी 
दिल व जान बादे फिदायत चे अजब खुश लकबी

रंगीले महाशय ने आखिर अपने दिल का बुखार किताब के अन्त में निकाला कि सारा गम व गुस्सा उसको हुजूर के बहुपत्नि विवाह पर है अर्थात उसने जो नतीजा निकाला उससे भी यही प्रकट होता है कि इसको न बुढी पत्नी का दुख है, न जवान का सदमा , बल्कि दुख है तो बहुपत्नी विवाह का है। इसी लिए वह अपने दिल का बुखार इन शब्दों में निकालता हैः
“मुहम्मद को ऐसा कौन सा नाम दूं जिससे मुहम्मद की जिंदगी का फोटो आंखों में उतर आए, पचास साल का था , जब खदीजा ने इंतिकाल कियां। बासठ साल का था जब स्वयं इंतिकाल किया । इस बारह साल की अवधि में दस औरतें की अर्थात सवा साल में एक । इन हालात में अगर मैं अपनंे रंगीले  रसूल को पत्नियों वाला कह दूं तो क्या उचित न होगा, पत्नियों वाला कहा और मुहम्म्द को पा लिया मुहम्म्द के दिल को पा लिया। मुहम्म्द की रूह को पा लिया।“ (पृ0 28, 49, 51)
बहु पत्नी विवाह के मसले की फलसफी हम तफ्सीर सनाई भाग 2 में जेरंे आयत मुसन्ना व सलास विस्तार से लिख चुके हैं। इसका सारांश यह है कि कुदरती तौर पर मर्द और औरत में एक निस्बत है मर्द औरत को इस्तेमाल करने वाला और औरत इस्तेमाल की चीज है। इसके साइंटिफिक तर्क इसी जगह मौजूद है। तो जिस इस्तेमाल की चीज को जितनी और जैसी इस्तेमाल की चीजों की जरूरत हो, यथा शाक्ति उतनी रख सकता है लेकिन आर्य महाशय को साइंटिफिक तर्को से क्या काम , उनको धर्म शास्त्र से मसला बहु पत्नी विवाह का हल हो जाना चाहिए। 
तो वे सुनें
आर्यों और हिन्दुओं मे मनु जी एक ऐसे बुजुर्ग , मजहबी पेशवा गुजरे हैं, जिनकी सेवा में इस जमाने के बडे बडे ऋषियों ने हाजिर होकर  प्रार्थना की थी:
“ऐ भगवान इन सब वर्णों (जातों) और वर्ण संकरों का धर्म ठीक ठीक हमसे कहिए क्योंकि 
ऐ प्रभू! ख्याल से बाहर और असीमित और प्राचीन वेद में बयान किए हुए जो अनेक प्रकार के कर्म हैं उनके असल मतलब के जानने वाले एक आप ही हैं। (मनु स्मृति, अध्याय 1, वाक्य 1-3)
आर्यो में मनु स्मृति की इतनी कदर है कि स्वामी दयानन्द की सत्यार्थ प्रकाश इसी के हवाले से भरी पडी है। अगर मनु स्मृति के हवाले को अलग कर दिया जाए तो सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ मुश्किल से इतने रह जाएगें कि कुछ पतंग बन सकें।
मनु जी की सुनों !
यही मनु भगवान बहु पत्नी विवाह को ऐसी खूबी से हल फरमाते हैं कि शायद, राजा की बाबत हिदायत है कि:
“राजा खाना खाकर औरतों के साथ महल में बहार करे।“(अध्याय 7, वाक्य 221)
और सुनों !
“एक की दो पत्नियां हैं और छोटी पत्नी से लडका पहले पैदा हुआ और बडी पत्नी से पीछे हुआ तो इस मकाम पर तक्सीम हिस्सा किस तरह करना चाहिए। आगे के श्लोक में लिखेंगें।“(अध्याय 9, वाक्य 122)
और सुनो !
पहली औरत हो भिक्षा से दौलत उपलब्ध करके उस रूप्ये से दुसरी शादी कर ले तो उसकी सिर्फ संभोग का आनन्द मिलता है और औलाद उसी की है, जिसने दौलत दी।“
इन सब से अलग सुनों !
“अगर एक आदमी की चार पांच औरतें हों और उनमेंसे एक संतान वाली हो तो बाकी भी संतान वाली है। यह मनु जी का हुक्म है।“ (अध्याय 9, वाक्य 183)
महाशय सज्जनों ! धर्म शास्त्र को मानने वाला इस हुक्म के अर्न्तगत बहुपत्नी विवाह पर अगर अमल करे तो उसकेा भी वही नसीहत करोगे जो रंगीले महाशय ने की है। जिसके कठोरतम शब्द यह है:
“बहुत पत्नियां करने वालो देखो पैगम्बरों की जिंदगियां शिक्षाप्रद हैं। अगर इस महानता के लोग अपनी गलत कारियों के बुरे अंजामों से नहीं बचे तो तुम अपनी करतूत के कडवे फलों से अपने आपको महफूज समझतें हो। दशरथ का घर बर्बाद हुआ, मुहम्म्द का दीन बर्बाद हुआ। क्यों ! इसी लिए कि बूढे होकर नई नवेलियों से शादियां की।“ (रंगीला पृ0 24)
किस कदर पागल है अल्लाह की शान ! ऐसे लोग भी लेखक बन जाते है जो बयान का विषय भी न जानतें हो। शुरू बयान में खराबी की वजह बहु पत्नी विवाह बताया है। अन्त में नई नवेली से शादी को कारण बनाया है । पहले बयान के मुताबिक अगर बूढी औरतें भी अनेक होती तो हानिकारक थां। आखिरी बयान के मुताबिक एक नई नवेली पत्नी भी हानिकारक है क्या इतनी सी इबारत में इतना बडा उसूली मतभेद किसी सही दिमाग का काम है?
खैर यह तो है लेखक की दिमागी योग्यता का जिक्र अब हम उसके दावे की पडताल करतें है “मुहम्म्द का दीन बर्बाद हुआ।“ दस्तूर है, इंसान दिन को अच्छा करता है रात को वही नजर आती है। चाहे घटना में न हो। चुंकि ये लोग इस्लाम की दिल से बर्बादी चाहते है इसलिए उसकी बर्बादी के सपने इन को आते है, वही उनके मूंह और कलम से निकलते है। वरना दीने मुहम्मद अगर निकाह नई नवेली (आइशा) से बर्बाद हुआ होता तो हिन्दुस्तान हां आर्यव्रत हां हां पवित्र भारत भूमि मुसलमानों के कदम क्यों चूमती और सच तो यह है कि तुम्हारे स्वामी को सत्यार्थ प्रकाश जैसी जबरदस्त किताब इस्लाम के विरूध लिखने की जरूरत हुई? और तुम भी आज यह दिल शिकन रिसाला क्यों लिखते? कोई तुम्से यह न कहता कि भले आदमी ! इस्लाम तो पैगम्बर इस्लाम के बाद निरंतर बर्बाद हो चुका है फिर तुम यह बेकार की हरकत क्यों करते हो? क्या सच है:
इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा
लडते हैं और हाथ मे तलवार भी नहीं

महाशय जी का इतिहास ज्ञान

इस पृष्ठ पर आप लिखते हैं:
“मुहम्मद के इसी गृह यु़द्ध ने मुहम्मद की वफात के बाद इस्लाम की तारीख को निरंतर रक्त पात की तारीख बना दिया।“ (पृ0 24)
क्या कहते है ? खिलाफत की बाबत लडाई न पहली खिलाफत में हुई, न दूसरी खिलाफत में, न तीसरी में। हां चौथी खिलाफत में हुई । तो इसकी वजह तीसरे हजरत उसमान रजि0 का कत्ल था न कि घरेलू विवाद।
आखिर आप स्वामी दयानन्द के चेले हैं, जिन्होने सत्यार्थ प्रकाश प्रथम एडीशन 1875 ई0 में लिख मारा था कि:
“महमूद गजनवी हिन्दुस्तान को लूटकर मक्का गया था।“(पृ0 321)
यद्यपि सुल्तान महमूद ने मक्का गया न मदीना गया। इसी लिए आर्यो ने स्वामी जी की इस गलती का सुधार करने को प्रथम संस्करण के बाद सारे एडीशनों में यह वाक्य ही उडा दिया बहुत अच्छा किया। 
दूसरी मिसाल
स्वामी जी का इतिहास ज्ञान तो यह है कि आपने अमेरिका के अभिलाशी कोलम्बस को जो इटली का नागरिक था, इंगलिस्तान का नागरिक लिखा। अतएव आपके शब्द यह है:
“इंगलिस्तान के कोलम्बस आदि लोग जब तक अमेरिका में नहीं गए थे।“ (सत्यार्थ प्रकाश उर्दू पहला एडीशन, पृ0 268)

आर्यो की होशियारी

आर्य समाजी चुंकि शिक्षित हैं उनको मालूम हो गया कि स्वामी जी ने सुने सुनाए ऐसा लिख दिया। इसलिए बाद के एडीशन में उसका सुधार यूं किया, बजाए इंगलिस्तान खास के एक व्यापक शब्द लिख दिया। अर्थात यूं लिखा कि:
“यूरोप के कोलम्बस आदि लोग जब तक अमेरिका नहीं गए थे।“(सत्यार्थ चौथा एडीशन, पृ0 235)
हमारा रंगीला लेखक भी आखिर स्वामी जी का चैला है। उन्होंने सुलतान महमूद को मक्का शरीफ पहुंचाया तो महाशय ने खिलाफत पर घरेलू विवाद का असर पहुंचाया । (चश्मे बद्दूर ) सच है:
लुत्फ पर लुत्फ है इमला मे यार के यार 
हा हुत्त्ती से गदह लिखता है हव्वज से हिमार

बहु पत्नी विवाह के बारे में हमारी हैरानी की कोई हद नहीं रहती जब हम इन वेदिक धर्म के श्रद्धालुओं से विरोध सुनते हैं। यद्यपि उनकी सर्वमान्य किताब धर्म शास्त्र में बहु पत्नी विवाह की इजाजत मिलती है। जिसके सुबूत मे ंहम कई एक हवाले ऊपर लिख चुके है।
आह! कैसा कलजुग है कि हिन्दु रक्षक कहलाकर धर्म शास्त्र का ऐसा अनादर करते है कि गौ भक्षक भी न करे। मनु जी महाराज तो चार पांच औरतों का जिक्र भी मिसाल के तौर पर बताते है । वरना उनके यहां तो कोई संख्या निश्चित नहीं। मगर आर्य महाशय है कि बहु पत्नी विवाह से डराते है । आह ! इन हिमायत से हिन्दू धर्म ऐसा दुखी हो रहा कि उसकी जवाने हाल से यह शेअर निकल रहा है:
दोस्त ही दुश्मने जान हो गया अपना हाफिज
नोशदारी ने किया असरे सिम पैदा

हमारी दरिया दिली

महाशय सज्जनों ! हमारी दरिया दिली देखो कि हम तुम्हारे असल दावे की पुष्टि करते है कि हमारे हुजूर पुर नूर अलैहिस्सालाम वस्सलाम बडे मर्द थे। मर्दान्गी के काम करते थे। चूंकि आप सल्ल0 कामिल मर्द थे इसलिए निश्चय ही पत्नियों वाले थे। स्वयं कुरआन मजीद न सिर्फ हुजूर को पत्नियों वाला बल्कि कुल अंबियां को पत्नियों वाला कहता है। ध्यान से सुनो !
हम (खुदा) ने (ऐ नबी) तुमसे पहले कई रसूल भेजे और उनको पत्नियां और औलादें दी । (पारा 13, रूकूअ 12)
इसलिए कि समस्त अंबिया अलैहिस्सालाम मानव जाति के लिए नमूना बनकर है । वे अगर पत्नियां न करें तो सारी उम्मत न करेगी। जिससे नस्ले इंसानी का सिलसिला रूक जाएगा। तो पत्नियों वाला होना नबी के लिए जरूरी है । वरना दुनिया की तबाही व बर्बादी हैः
हुस्ने यूसुफ दमे ईसा यदे बेजा दारी
आंचे खूंबां हमा दारन्द तू तन्हा दारी

दयानन्द वेदों वाला

रंगीले महाशय ने अपने गिर्द (स्वामी दयानन्द ) को एक सम्मानित उपाधि दी है अर्थात वेदों वाला । अतएव उसके शब्द यह है:
“ऋषि दयानन्द का नाम पंजाब में वेदों वाला पडने लगा है। ऋषि का नाम वेद, ऋषि का पैगाम वेद, ऋषि का जीवन , ऋषि की मौत, वेद का प्रकाशन का माध्यम हुई । ऋषि का सांस सांस वेद की किरअत थी। वेदों वाला मन भावना नाम है। यह नाम लिया और ऋषि के दिल को पा लिया । ऋषि की रूह को भांप लिया। “
आर्य लेखक अपने अकीदे के बयान करने का हक रखता है । मगर जनता की राए की नियाबत करने का उसको कोई हक नही। आज तक किसी किताब या किसी अखबार या किसी ज्ञापन में स्वामी दयानन्द को वेदों वाला नही लिखा गया। वेदों के इन्कारियों की तरफ से जो दयानन्द जी के हक में विचार प्रकाशित हुए है उनका तो हमने जान बूझकर जिक्र नहीं किया। मगर वेदों के मानने वाले हिन्दुओं की राए व्यक्त करने से तो हम रूक नहीं सकते। क्योंकि महाशय जी ने उन सब की तरफ से नियाबत की है । इसलिए आपको दिखाना है कि आपकी यह व्यक्तिगत राए है। कौमी और मुल्की नहीं। हिन्दुओं की तरफ से जो दयानन्द जी के बारे में लेख निकलते रहे हैं। उनमें बताया गया है कि स्वामी दयानन्द जी वेदों के अलावा अन्य मजहबी किताबों के हवाले भी गलत दिया करते थे। अतएव सनातन धर्म प्रचारक अमृतसर की तरफ से टेªक्टो के सिलसिले मे टेªक्ट नम्बर 23 से हमद स गवाहियां नकल करते है। जिनसे मालूम होता हो सकेगा कि रंगीले महाशय का दयानन्द जी को वेदों वाला लिखना इस पद के चरितार्थ है:
स्वामी दोस्तों ! सनातन धर्मी पंडितों का लेख सुनो और ध्यान से पढो!
(1) “पृ0 294, पंक्ति 15,
सवाल: दुनिया के आरम्भ में एक या कई इंसान पैदा किए थे। या क्या?
जवाब: कई , क्योंकि जिन जीवों के कर्म ईश्वरीय स्रष्टि में पैदा होने वाले थे। उनकी पैदाईश शुरू दुनिया ने की।
मन्शिया ऋषि असचा ये तत्व मन्शिया अजानीत: यह यजुर्वेद में लिखा है । “(सत्यार्थ प्रकाश पृ0 294) यह प्रमाण जिस पर हमने लकीर खींची दी है । स्वामी साहब लिखते है कि:
यजूर्वेद में लिखा है हमारा दावा है कि यजुर्वेद तो क्या चारों वेदों में नही ।तो या तो समाजी सह प्रमाण यजुर्वेद में दिखा दें वरना स्वामी साहब को झूठा ठहरा दें। तो आर्य समाजियों को यह प्रमाण या शहादत यजुर्वेद में दिखलानी होगी। वरना स्वामी दयानन्द का वेद मन्त्र के शब्दों को उलट पलट कर एक मन्त्र बना लेना कौन सा ऋषिपन है?महर्षि मनु जी लिखतें है कि वेद की निदा करने वाला नास्तिक है लेकिन जो वेद के नाम से बनावटी मन्त्र बनाता है वह कौन है बुद्धिमान समझ लें।
(2) पृ0 295 पंक्ति 20 
सवाल: इंसानो की पैदाइश किस स्थान पर हुई?
जवाब: त्री दस्टप में, जिसको तिब्बत कहतें है।
स्वामी साहब का यह लिखना कि इंसान त्री दस्टप अर्थात तिब्बत में पैदा हुए गलत है । आर्य समाजियों का यह ख्याल है कि जो बात वेद में लिखी गई होगी वह मानने योग्य है तो हमारा दावा यह है कि स्र्र्र्रष्टि का तिब्बत में पैदा वेद तो अलग रहे किसी हमारे ऋषि ने भी नहीं लिखा, बल्कि उसके बारे में कोई पुराना इतिहास या सुबूत जो आप्त परषों ने कहा हो। समाजियों के पास नहीं है। दूसरी बात जो स्वामी साहब ने लिखी है। वह और तनिक भी सोचने के लायक हैं। इसके अलावा झूठ कहने की पंडित , दयानन्द की कोष के बारे में थी अनभिज्ञता मालूम होती है। हमारा दावा है कि कुल संस्कृत की कोषों की पडताल कर लो तो त्री दस्टप के मायना तिब्बत कोष से न निकलेंगें।
(3) प्रहलाद की कथा भागवत से लिखते हुए पृ0 437 पंक्ति 8 में स्वामी साहब यूं लिखते है:
“तब उसने एक लौहे का सुतून आग मे गर्म करके उससे कहा कि अगर तेरा उपास्य सच्चा है तो इसके पकडने से न जलेगा। प्रहलाद पकडने लगा दिल में सन्देह हुआ कि जलने से बचूंगा या नहीं।“
नारायण ने इस सुतून पर छोटी छोटी चींटियों की लाइन चला दी।
हमारा दवा है कि श्री मद्भागवत मे यह कदापि नहीं कि प्रहलाद को सन्देह हुआ और नारायण ने छोटी छोटी चींटियों की लाइन चला दी । इससे साफ मालूम होता है कि स्वामी दयानन्द ने कदापि श्री मद्भागवत को नहीं पढा।
(4) पृ0 437 पंक्ति 26: पोतना और अकरूर के बारे मे देखो।
(1) रंथी बायोबीगीन (2) जगाम गो कलिन्ग प्रति ।
(नागरी बार द्वितीय तृतीय) सत्यार्थ प्रकाश में यह एक श्लोक है। उर्दू की दूसरी धारा मे हवाला कोई नहीं, तीसरी बार उर्दू मे अलग अलग टुकडे करके हवाला दिया है। लेकिन हमारा दावा है कि नागरी बार द्वितीय तृतीय में जो श्लोक है भागवत के नाम से (रंथी बायोबीगीन जगाम गो कलिन्ग प्रति ) पर लिखा है । यह श्लोक भागवत में नहीं है।
(5) पृ0 404 पंक्ति 21 “वेद पढत ब्रहम्मा मरे चारों वेद कहानी । सन्त की महावेद न जाने ब्रहम ज्ञानी आप परमेश्वर।“
गुरू नानक जी को वेदो का दुश्मन करार देते हुए निम्न तुक उनकी तरफ से लिखी है । लेकिन हमारा दावा है कि गुरू नानक जी ने यह कद्यपि नहीं कहा और न गुरू ग्रंथ या किसी विश्वसनीय ग्रंथ में यह तुक है।
(6) पृ0 104 पंक्ति 17 “वधुवानी चे रतनानी दोकते सो पावेत“ तरह तरह के जवाहिरात सेाना आदि दोलत वोकत अर्थात सन्यासियों को देवे। मनु अध्याय 11। यह टुकडा जो मनु जी के नाम से लिखा है कदापि मनु स्मृति में नहीं है चूुकि स्वामी साहब संन्यासी थे और वेदिक धर्म के अनुसार संन्यासी केा दौलत आदि रत्न रखना मना है। इसलिए स्वामी जी ने अपना मतलब सीधा करने के लिए महर्षि मनु जी के नाम से यह श्लोक लिखा। लेकिन हमारा दावा है कि इस तरह यह श्लोक मनु स्मृति में कदापि नहीं है।
(7) पंज महायुग बुद्धि में स्वामी साहब गायत्री मंत्र की निस्बत लिखते हैं कि यह मंत्र उसी प्रकार चार वेद में है । लेकिन दावा है कि मंत्र इस प्रकार अथर्वेद में नहीं है।
(8) पृ0 254 पंक्ति 23।
सवाल: आर्यव्रत की हद कहां तक है?
जवाब: मनु स्मृति के दो श्लोक दिए हैं। जिससे आर्यव्रत की सीमाओं को बताया गया है। अफसोस उसके दूसरे श्लोक मे स्वामी जी ने गलत लेखनी से काम लिया है। पाठक तनिक ध्यान से देंखें। मनु स्मृति निकालिए और स्वामी जी की पुस्तक भी निकालें ।
पहला श्लोक (22) जो आर्यव्रत की व्यापकता दिखलाने वाला है वह अक्षर सही और ज्यों का त्यों ठीक ही है। लेकिन अगला श्लोक जो लिखा है उसमें आखिरी हिस्सा श्लोक का फर्जी बना दिया है। मनु स्मृति मे शब्द ब्रहमा दरतम था। जिसकी जगह स्वामी ने आर्य दरतम बनाकर उस श्लोक को ही आर्यव्रत की व्यापकता दिखाने वाला बना दिया है। जिससे स्वामी जी की धर्म के प्रति सच्चाई और ईमानदारी का पूरा सुबूत है।
(9) पृ0 55 पंक्ति 6, “पंज व नसत्ते तत्व दरशे पोमान नारी तो शोडशे“। यह सुशरत के शरीर स्थान का लिखा है। हमारा दावा है कि श्लोक सुशरत स्थान में नहीं है।
(10) पृ0 327 पंक्ति 15, “जब वेद मत को स्थापित कर चुके और ज्ञान फैलाने का विचार करने ही वाले थे कि इतने में दो अजनबी बाहर से नाम मात्र को वेद मत के हामी और अंदर से पक्के जैनी अर्थात कपटी मुनी थे। शंकराचार्य को ऐसी जहरीली चीज खिला दी कि उनकी भूख कम हो गई । इसके बाद जिस्म में फोडे होकर छः माह के अन्दर मर गए।
यह बात किसी विश्वसनीय इतिहास में नहीं है । किसी शंकर दिज्ञजिए से यह साबित नहीं होता है कि दो जैनियों ने स्वामी शंकराचार्य को जहरीली चीज खिला दी। आर्य समाज को चाहिए कि ऐसी शंकर दिज्ञजिए का पता लगाएं, वरना स्वामी जी की झूठा जान कर उससे किनारा करें। (सनातन धर्मी टेªक्ट नं. 23) मौसूमा , “स्वामी दयानन्द जी की दस बडी भरी गलतियां “ लेखक महंत गोकुल दास मैनेजर सनातन धर्म प्रचारक मण्डल अमृतसर । (प्रकाशन सनातन धर्म प्रेस, अमृतसर)
यह तो हिन्दुओं की राए है जिसमें हम जिम्मेदार नहीं। अब हम वेदों के बारे में स्वामी दयानन्द का बर्ताव अपनी जिम्मेदारी पर सुनाते है ताकि मालूम हो सके कि महाशय की राए कहां तक सही है।
हिन्दुओं का प्राचीन काल से यह अकीदा चला आया है कि वेदों के दो हिस्से है (1) संगता (2) ब्रहम्मण। मगर स्वामी दयानन्द ने ब्रहम्मण हिस्से को वेदों से अलग करके गैर इल्हामी करार दिया। देखो ऋग्वेद भूमिका लेखक दयानन्द जी, बहस “इस्तिलाह वेद“ । तो क्या हिन्दुओं के अकीदे के अनुंकुल वेदों को आधा करने वाला भी वेदों वाला कहला सकता है? हां “वेंदों वाला“ शब्द से अगर यह तात्पर्य हो कि वेदों को खराब करने वाला तो हिन्दुओं को भी शायद इस उपाधि पर आपत्ति न होगी।
स्वामी दयानन्द ब्रहमचारी नस्ल विच्छेदक और क्रोध वाले थे
यह तो हिन्दुओं और आर्यो की आन्तरिक हालत है। अब हम अपनी तहकीक से एक नमूना स्वामी दयानन्द जी के बारे मे बताते है । स्वामी जी की जिंदगी का प्रमुख तत्व यह है कि आप सारी उम्र ब्रहमचारी रहे। मजहबी रहनुमा अपने अनुसरण के लिए नमूना होते है । अगर सारे आर्य उनकी तरह ब्रहमचारी रहे तो उनकी नस्ल का खात्मा मालूम है। इसलिए हमारे शीर्षक का एक अंश आम सहमति से साबित है कि स्वामी दयानन्द नस्ल विच्छेदक थे। कौन नहीं जानता कि मजहबी पेशवा वही हो सकता है जो अपने नफ्स पर काबू रखता हो। खास मजहबी और नैतिक मामलों मे उस समय उसकी राए डगमगाए नहीं। यही समय उसकी परीक्षा का है। उन्ही मायना में किसी अहले दिल ने खूब कहा है:
अर्थात जिस तरह जोश मारने वाला दरिया मामुली मामूली कंकरियां मारने से मैला नही होता इसी तरह खुदा का आरिफ का्रेध में लिप्त नही होता । अगर हो तो समझो कि छोटे पानी मे है।
महाशय सज्जनों ! आओ इस पाक उसूल के मातहत हम स्वामी दयानन्द की जिंदगी का जायजा लें। स्वामी जी की आत्म कथा बडी सोच विचार करके लिखी गई है लेकिन उसमें स्वामी जी की जिंदगी के दो हिस्से हमको नजर आते हैं । पहला हिस्सा शिक्षा से पूर्व जवानी का है उसकी बाबत तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं । कौन सी नैतिक बुराई है जो उस उम्र मे स्वामी जी के जिम्में नही हुई। गलत बयानी, बुरी संगत, यहां तक कि भंग आदि का अधिकता से इस्तेमाल, अतएव वह आप कहतें है कि: 
“इस जगह मुझे बडा ऐब लग गया, अर्थात मुझे भंग के इस्तेमाल करने की आदत हो गई।“ (सवानेह कलां पृ0 19)
रंगीले महाशय ने हमारे हुजूर अलैहिस्सालाम वस्सलाम की नुबुवत से पहले पच्चीस साला जिंदगी पर भी आपत्ति की है। जिनकी वजह स्वयं उसके दिल व दिमाग की खराबी है। मगर हम उसके गुरू की पहली जिंदगी पर आलोचना नहीं करते । क्योंकि वह तो स्वयं अपने कथानुसार स्वामी और इस काबिल नही कि आलोचना हो बल्कि इस पद की तरह हैः
तन हमा दाग शद पिन बह कुजा कुजा नहम

इसलिए हम इस विषय के नीचे उनकी जिंदगी का वह हिस्सा लेते है जो उनकी रिफोर्मरी और धर्म प्रचार का जमान है।
हमारा शीर्षक है कि स्वामी जी क्रोधित अर्थात गुस्से वाले थे । इस दावे का सुबूत सुनिए , स्वामी जी की आत्मकथा में लिखा है:
“दुसरे दिन स्वामी जी ने मूर्ति पूजा के खण्डन पर लैक्चर दिया। इसी मे महमुद गजनवी का आना और उसके हमलों से देश के धन की हानि का विस्तार से वर्णन किया और मन्दिरों में औरतों के जाने ओर वहां की दुर्दशा का बयान किया जिसमें किसी व्यक्ति ने मकान की छत पर पश्चिम दिशा से यह सवाल किया कि आपने फरमाया कि स्त्री को एक ही बार अपने पति के पास जाए अर्थात व्याभिचार न करे। मगर जिस का पति के पास तवाइफ के पास जाए उसकी औरत क्या करे। उन्होंने कहा कि उसकी औरत भी एक और मजबूत सा आदमी रख ले।“ (पृ0 355)
आर्ये सज्जनों ! स्वामी जी का कथन मजहबी हुक्म है? या गुस्से का प्रकटन । क्या कोई मजहबी पेशवा, सच्चा रिफोर्मर, मार्ग दर्शक गुस्से में धर्म के खिलाफ ऐसा चरित्रहीन हुक्म दे सकता है । इसके अलावा हम नहीं जान सकते कि स्वामी जी को गुस्सा किस बात का आया। सवाल बिल्कुल मामूली है इससे सख्त और पेचीदा सवाल हम उपदेशकों और मौलवियों पर होते रहतें है। दूसरी यह है। आश्चर्य है स्वामी कितने प्रकोपी हैं।
खुदा की कसम हम हैरान हैं कि एक पाकदामन औरत को मात्र उसके पति की बेवकूफी से मजबूत सा आदमी रखने की इजाजत बल्कि हुक्म देते है। दुनिया के सुधारने के इतिहास में हमें इसकी मिसाल नही मिलती। क्या सच है:
कत्ल आशिक किसी माशूक से कुछ दूर न था
पर तेरे अहद से पहले तो यह दस्तूर न था
तो इन हवालो की बिना पर अगर स्वामी दयानन्द जी के नस्ल विच्छेदक और गुस्सें वाला कहा जाए, तो बेजा न होगा। गुस्से वाला कहा और स्वामी जी को पाया:
इस नाजनीन को देखना जोदत न छोडना 
गर रूठ भी गया तो मनाया न जाएगा

मुनाजात बदरगाहे मुजीबुद्दावात

ऐ गफूरूर्रहीम खुदा ! तू जानता है कि मेरा ईमान है । हजरत पैगम्बरे खुदा सल्ल0 और हुजूर पाक पत्नियां सब तेरंे नजदीक सच्चे बन्दे है इसलिए मेंने तेरे हुक्म के अर्न्तगत तेरी ही मदद से उनकी तरफ से बचाव किया है तो तू ऐ मेरे दिल के हाल को जानने वाले खुदा इस सेवा के बदले में मुझे और जिन लोंगो ने इसमें मेंरी किसी प्रकार की मदद की है हम सब को उन सच्चो के साथ मिला दे । 

इस्लाम के पवित्र पेड से संबधित कविता 

वह इस्लामी शजर जिसको पैगम्बर ने लगाया था
वह इस्लामी शजर जिसको सहाबा ने बढाया था 
वह इस्लामी शजर सारे जहां पर जिसका साया था
रहा बाकी न जिसके फेज से अपना पराया था
अब उसकी डालियों में एक भी बाकी नहीं पत्ता
करों हिम्मत न सुखे यह जो सूखा गजब होगा
है उसकी बीख मक्का में है शाखें ता बिलोचिस्तां
जजाइर और हिन्द व चीन व जावा और तुर्किस्तां
बचा हो कोई मुल्क उससे बताए तो कोई इंसां
वही तो है एक आलम ने जिससे फैज पाया था
करीबुल मर्ग है, जिसने कि मुर्दो को जिलाया था
रहे ताइफ में हजरत सल्ल0 थक गए चलने से आरी
उहुद में दांत टुटे और दहन से खून था जारी
कभी फाका में पत्थर पेट पर बांधे बिना चारी
उगाया उसको हजरत ने उठाकर सख्तियां सारी
सिखाए देती है अब उम्मत खैरूल उमम देखो!
उसी के वारिसों से इस पर यह कैसा सितम देखो!
नहीं यह वह शजर जिसने कि पानी से गिजा पाई
सहाबा ने पिलाया खून इसने परवरिश पाई !
बने माली आइम्मा इस लिए इस पर बहार आई 
हुए हम नाख्लफ ऐसे कि इसकी शक्ल मुरझाई
न वह जीनत रही इसकी न वह इसका रहा साया
हमारी गफलतों ने इसकी पलटी इस कदर काया
है इस नख्ले मुकददस को निकम्मों से पडा पाला
करो हिम्मत कि हो सब्ज फिर से फूल फल वाल
जो होगी मुत्तफिक कोशिश खिलेगा फिर गुले लाला
हजारों ऐसी दुनिया में बहारे फिर से आई हैं
खिलें है और खिल कर फिर घटाएं घिर के आई है
लगाए बाग बगीचे अलम इसका नही इसका कुछ भी
उडाएं खूब गुलछर्रे अलम इसका नहीं कुछ भी
हो लाख इस्लाम पर हमले अलम इसका नहीं कुछ भी
कहां तक यह शुतर गमजे अलम इसका नही कुछ भी
न लेंगें हम खबर इसकी रहेंगें कब तलक गाफिल
पशेमानी हो आखिर में चरा कारे कुनद आकिल
बताओ तो सही लिल्लाह इसका कौन वाली है!
नजर जिस सिमत करते हैं उधर मैदान खाली है
तवज्जोह इस तरफ से हमने अब बिल्कुल उठा ली है
गए हम भूल चाल अपनी वह औरों ने उडा ली है
हमें तो अब फकत बाहम जिदाल व जंग आती है
हमारे नाम से मजहब को आर व नंग आती है 

कहीं फरमान बारी भी किसी सूरत से टलते हैं

muqaddas rasool book-hindi urdu pdf मुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल

मुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल  . लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी   '''रंगीला रसूल''' १९२० के दशक में प्रकाशित पुस्...